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धन भवन वैभव अकिंचन ही रहे
"अन्याय की आग"
भारतवर्ष में आज कल घोटालों का दौर है।
खुद में खुद को ज़िन्दा रख, मानवता हित आगे बढ़।
जड़ों से जुड़कर ही वृक्ष फलते फूलते,
चूल्हा चौका गोबर से लीपा जाता था,
लानत है,
हो सके तो कभी सपने में तनिक आओ
मतदान
"प्रतिरोध की आग"
अच्छे और बुरे का मिश्रण ही
जरुरत क्या थी ...?
कासे लिखूँ प्रीत पिया
पूर्ण विराम अंत नहीं, नए वाक्य की शुरुआत है
शिकायते है पर एक है
सब कुछ है, संतोष नहीं,
"लफ़्ज़ों के जादूगर, जज़्बातों से बेखबर"
चुनाव से जुड़ाव.
वाह री जिन्दगी
गर्मी का ऐसा आलम है,