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धन भवन वैभव अकिंचन ही रहे

धन भवन वैभव अकिंचन ही रहे

डॉ रामकृष्ण मिश्र
धन भवन वैभव अकिंचन ही रहे
संचिकाओं सी मनुजता खो गयी।।
फटे चिथड़ों सा उपेक्षित स्वस्छ मर्क्षादा
पूर्ण जो है स्वयं फिर भी चाहता ज्यादा।
सदाशयता की चतुर्दिक भित्तियाँ भसकीं
भेद अपने पराये के अब नहीं सादा।।
कहाँ जाकर चेतना भी सो गयी।,
अँधेरे को दीप का जलना नहीं भाता
उपेक्षित भी खड़ा याचक धन नहीं पाता।
जो सदा कठिनाइयों में रहा है अविकल
नहीं अपने भाल किंचित सिकन है लाता।।
द्ष्टि विकृति, कल्पनाएँ धो गयी।।
तंग होते जा रहे संबंध अब सारे
बहुत मुश्किल है समझना कहाँ हम हारे।
प्रेम भी सौदा गिरी पर जो उतर आए
कौन बैरी कौन सचमुच ठहरते प्यारे।।
एक चिंता बीज जाने बो गयी।। 
***********रामकृष्ण
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