वाह री जिन्दगी

वाह री जिन्दगी

खेतों की पगडंडियों पर
आम के झूरमूठों के बिच
नदियों के कछारों पर
सुनसान गलियों में
भागती सड़कों पर
व्यस्त शहर में
खोजता रहता हूँ
अपनी बचपना को
जो पता नहीं कब
मेरी अँगूली छोड
गुम हो गई है ।
एक लम्बे अंतराल पर
मेरा यशगान करती हुई
मेरे मस्तक पर
दूज का चॉद बन
चॉदनी विखेरती हुई
विराजमान होती है
और तब
जीवन के अथाह
सागर से निकाल
एक नए लोक में
विचरण कराने लगी है
वाह री मेरी जिन्दगी ।
जितेन्द्र नाथ मिश्र
कदम कुआं, पटना
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