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दयानंदवादी सावरकर के कारण आज हम वेद पढ़ पा रहे हैं

दयानंदवादी सावरकर के कारण आज हम वेद पढ़ पा रहे हैं

डॉ राकेश कुमार आर्य 
पंडित मदनमोहन मालवीय जी , स्वामी दयानंद जी महाराज और क्रांतिवीर सावरकर जी के बारे में समाचार है कि इन तीनों महापुरुषों का चित्र दिल्ली की विधानसभा में लगाया जाएगा। यह तब संभव हो पाया है, जब यहां पर भाजपा की सरकार आई है। जिसकी मुख्यमंत्री श्रीमती रेखा गुप्ता स्वयं राष्ट्रवादी हैं। उनके द्वारा लिया गया यह निर्णय निश्चित रूप से सराहनीय और अभिनंदनीय है। उन्होंने भारत के मर्म को अनुभव कर उसके अनुसार निर्णय लेकर देश के राष्ट्रवादियों की शुभकामनाओं को अपने लिए एक पूंजी के रूप में संचित किया है।
हम सभी यह भली प्रकार जानते हैं कि भारत के इतिहास के साथ गंभीर रूप से छेड़छाड़ की गई है। यह छेड़छाड़ इतनी भयंकर है कि सामान्य व्यक्ति इसका अनुमान नहीं लगा सकता। दोगले राष्ट्रवादियों ने विशुद्ध राष्ट्रवादियों के साथ जितना हो सकता है उतना अन्याय और अत्याचार किया है। यदि बात नेहरू और गांधीजी की करें तो उनके गंभीर अपराधों को भी आज इतिहास ने बहुत उत्तमता के साथ प्रस्तुत कर दिया है । जबकि हमारे विशुद्ध राष्ट्रवादियों के विशुद्ध चिंतन और उनके विशुद्ध राष्ट्रवाद को इतिहास की जेल की सलाखों के पीछे फेंक दिया है। जिससे हमारे कई विशुद्ध राष्ट्रवादी महापुरुष उपेक्षा का पात्र बन गए हैं।
स्वामी दयानंद जी महाराज द्वारा लिखित 'सत्यार्थ प्रकाश' के बारे में सावरकर जी के बहुत अच्छे विचार थे। इतिहास में तथ्यों को स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं किया गया है, इसलिए कई बार ऐसा लगता है कि स्वामी दयानंद जी और सावरकर जी वैचारिक धरातल पर एक दूसरे के विरोधी हैं। जबकि ऐसा नहीं है। क्योंकि पुरानी पीढ़ी के लोगों के भीतर यह विशेषता रही कि उन्होंने एक दूसरे के साथ वैचारिक सामंजस्य बैठाने में आज की पीढ़ी की अपेक्षा बहुत अधिक उदारता दिखाई। यदि मैं और आप किसी एक बिंदु पर असहमत हैं तो हम उन दिनों सहमति के उन बिंदुओं को ढूंढकर काम करने में रुचि लेते थे, जिन पर साथ मिलकर काम कर सकते हैं। पंडित मदन मोहन मालवीय जी और स्वामी श्रद्धानंद जी इसका उदाहरण हैं । स्वामी श्रद्धानंद जी कट्टर आर्य समाजी थे। जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय जी उतने ही पौराणिक थे । इसके उपरांत भी उन दोनों ने राष्ट्रहित में काम करने का निर्णय लिया और उन बिंदुओं को खोज लिया, जिन पर वे राष्ट्र के लिए मिलकर काम कर सकते थे। सावरकर जी ने भी यदि कहीं किसी बिंदु पर आर्यसमाज से अपने आपको असहमत पाया तो भी उन्होंने स्वामी दयानंद जी के मिशन को आगे बढ़ाने में उतनी ही रुचि ली, जितना कोई कट्टर आर्य समाजी ले सकता था । इसलिए सावरकर जी को भी यदि 'दयानंदवादी' कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री श्रीमती रेखा गुप्ता ने तो पंडित मदन मोहन मालवीय जी की विचारधारा पर मजबूती से आगे बढ़ते हुए अपने आपको एक साथ दयानंदवादी और सावरकरवादी सिद्ध कर दिया है।
सावरकर जी का दयानंद जी महाराज के 'सत्यार्थ प्रकाश' के प्रति गहरी श्रद्धा का भाव था। जब सिंध की सरकार ने ' सत्यार्थ प्रकाश' पर प्रतिबंध लगाने की बात की थी तो सावरकर जी ही थे, जिन्होंने सिंध में जाकर वहां की सरकार को चुनौती देते हुए ललकारा था कि यदि आपने सिंध में 'सत्यार्थ प्रकाश' पर प्रतिबंध लगाया तो सारे देश में कुरान पर प्रतिबंध लगवाना हमारा काम है। इसी प्रकार जब गांधी और नेहरू दोनों स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा की लिपि उर्दू लिपि को बनाने पर सहमत हो गए थे, तब सावरकर जी ने फिर इन दोगले नेताओं को चुनौती देते हुए कहा था कि देश की राष्ट्रभाषा वही होगी जो 'सत्यार्थ प्रकाश' में स्वामी दयानंद जी ने लिखी है अर्थात संस्कृतनिष्ठ हिंदी। उनका यह लेख हमें 'सावरकर समग्र' के खंड 9 के पृष्ठ संख्या 370 पर मिलता है। स्वामी जी के प्रति सावरकर जी के इस श्रद्धा भाव को देखकर कहा जा सकता है कि वह दयानंदी सावरकर थे।
सावरकर जी के चिंतन से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि गांधी और नेहरू ने 'मोपला कांड' में हजारों हिंदुओं का कत्ल केवल इस बात को लेकर करवा लिया था कि इससे 'खिलाफत आंदोलन' में उन्हें सफलता मिलेगी और देश का मुस्लिम वर्ग उनके साथ जुड़ेगा। जबकि सावरकर जी इस प्रकार के समन्वय के विरुद्ध थे। उनकी दृष्टि में हिंदुओं की कीमत पर मुसलमानों का साथ लेना न केवल मूर्खता थी अपितु राजनीति में किया जाने वाला एक ऐसा प्रयोग था जो 'अक्षम्य अपराध' की श्रेणी में आता था। उनकी दृष्टि में राजनीति को भी पूर्णतया पारदर्शी होना चाहिए। यह सुलझे हुए लोगों की सुलझी हुई मानसिकता की प्रतीक होती है न कि दोगले और उलझे हुए विचारों से देश को हांकने का प्रयास करने वाले लोगों की प्रयोगशाला। राजनीति को प्रयोगशाला बनाने का अभिप्राय है- देश में अनेक प्रकार की विसंगतियों को जन्म देना और यही नेहरू जी व गांधी जी कर रहे थे। सावरकर जी नेहरू गांधी के दोगलेपन और मूर्खतापूर्ण नीतियों के कट्टर आलोचक थे। यही कारण रहा कि कांग्रेस के नेताओं ने उन्हें कभी पसंद नहीं किया।
गांधी जी ने मुसलमानों से स्वाधीनता आंदोलन में सहयोग लेने की बात की तो उन्होंने झट से एक शर्त विचारों में उलझे हुए गांधी जी के समस्त रख दी कि आप हमें यदि इस बात के लिए आश्वस्त करें कि स्वाधीन भारत में उर्दू देश की राष्ट्रभाषा होगी तो हम इस पर विचार कर सकते हैं। गांधी जी और नेहरू जी ने इस बात पर तुरंत अपनी सहमति प्रदान कर दी। नेहरू जी तो पहले से ही 'हिंदुस्तानी हिंदी' की बात करते थे अर्थात् जिसमें उर्दू अरबी फारसी के बहुत से शब्दों को सम्मिलित कर लिया जाए, ऐसी एक भाषा बनाकर वह उसे राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलाना चाहते थे। गांधी जी की भी यही मान्यता हो गई थी। दोनों ने ही इस बात पर सारे देश को सहमत करने का प्रयास किया कि उर्दूलिपि को ही राष्ट्र-लिपि मान लिया जाए।
जब देश के विभाजन का समय आया तो दोनों ने उर्दू लिपि को राष्ट्र लिपि बनने पर और भी अधिक बल देना आरंभ कर दिया। तब सावरकर जी ने जोरदार शब्दों में नेहरू गांधी को चुनौती देते हुए इस बात के लिए ललकारा कि यदि उन्होंने उर्दूनिष्ठ हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयास किया तो उसका भरपूर विरोध किया जाएगा। हम स्वामी दयानंद जी महाराज के द्वारा रचित 'सत्यार्थ प्रकाश' की संस्कृतनिष्ठ हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं। तनिक कल्पना कीजिए कि यदि सावरकर जी इस आवाज को नहीं उठाते और गांधी नेहरू उर्दू लिपि को राष्ट्र लिपि बनाने में सफल हो जाते तो क्या होता ? तब आप सीता जी को सीता माता न कहकर सीता बेगम कहते। रामचंद्र जी को राजा राम न कहकर बादशाह राम कहते हैं। सारी लिपि उर्दू में हो जाने के कारण आपके पास न तो वेद रहे होते न उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत आदि रहे होते। तब आप एक लुंज-पुंज देश के नागरिक होते। जिसका अपने पास अपना कुछ नहीं होता और बहुत संभव था कि अब तक देश इस्लामिक राष्ट्र घोषित हो जाता। इसलिए श्रीमती रेखा गुप्ता जी और भी अधिक अभिनंदन, धन्यवाद और बधाई की पात्र हो जाती हैं कि उन्होंने एक विरासत को सहेजने का काम करते हुए आने वाली पीढ़ी को यह संदेश देने में सफलता प्राप्त की है कि हम अपने पूर्वजों के गौरवपूर्ण जीवन से न केवल प्रेरणा ले सकते हैं बल्कि उसका सम्मान करना भी जानते हैं।
गांधी जी हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रहे थे। जहां से उन्होंने उर्दू लिपि को राष्ट्रलिपि बनाने की वकालत की थी। इस संबंध में उन्होंने एक प्रस्ताव भी पारित करवा लिया था। सावरकर जी ने जब उनके इस आवाहन को चुनौती दी और उनके साथ देश के लोगों ने आवाज में आवाज मिलाई तथा हिंदू महासभा जैसे हिंदूवादी संगठनों ने स्वामी दयानंद जी महाराज के 'सत्यार्थ प्रकाश' की संस्कृतनिष्ठ हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा बनाने पर सहमति दी तो गांधी जी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। क्योंकि सावरकर जी की चुनौती से हिंदी साहित्य सम्मेलन की बुद्धि ठिकाने आ गई थी। इसके उपरांत भी कई लोग थे जो देश में गांधी जी के अनुसार उर्दूलिपि को राष्ट्रलिपि बनाने की दिशा में कार्य करते रहे थे। यह गांधी जी ही थे जो जिन्होंने यह कहा था कि उर्दू शब्द बहुल ' हिंदुस्तानी' नामक बोली लखनऊ के निकट सर्वसाधारणत: हिंदू और मुसलमानों के द्वारा बोली जाती है। इसी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। जबकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस रोमन लिपि के समर्थक थे।
सावरकर जी कहते हैं कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी का समर्थन सबसे अधिक महाराष्ट्रीयन लोगों ने किया है । इसका अभिप्राय है कि उस समय के महाराष्ट्र के लोग संस्कृत निष्ठ हिंदी के समर्थक थे। उन्हें उर्दूनिष्ठ हिंदी प्रिय नहीं थी, न ही गांधी नेहरू का दोगला राष्ट्रवाद उन्हें प्रिय था। यही सावरकरवाद था । आज सावरकर जी के नाम पर यदि कोई हिंदी का विरोध करता है तो वह सावरकर जी की आत्मा को कष्ट देता है। उसे नहीं पता कि सावरकर जी हिंदी का विरोध कर रहे थे तो वह हिंदी कौन सी थी ? निश्चित रूप से वह उर्दूनिष्ठ हिंदी थी । सावरकर जी उर्दू लिपि का विरोध कर रहे थे। वह उर्दू मिश्रित हिंदी भाषा का विरोध कर रहे थे। वह राष्ट्र की आत्मा को मारने वाली राष्ट्रभाषा का विरोध कर रहे थे। इस बात को समझने की आवश्यकता है। सावरकर जी के भाव और भावनाओं का सम्मान करते हुए हमें संस्कृतनिष्ठ हिंदी के समर्थन में आवाज उठानी चाहिए और यदि इस काम को महाराष्ट्र करता है तो उसकी आवाज सारे देश में सभी लोगों का समर्थन प्राप्त कर सकतीहै।
हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जिस समय देश स्वाधीन हो रहा था, उस समय वास्तविक मतभेद संस्कृत निष्ठ हिंदी और उर्दूनिष्ठ हिंदी के बीच था। इसीलिए अंग्रेजी को 15 वर्ष के लिए रखने की बात की गई थी । 15 वर्ष बाद यदि उर्दूनिष्ठ हिंदुस्तानी हिंदी पर बात बन जाएगी तो कांग्रेस के नेहरू और उनके गांधीवादी मित्रों की सोच थी कि उसके पश्चात उर्दूनिष्ठ हिंदुस्तानी हिंदी को ही राष्ट्रभाषा बना दिया जाएगा। यानी 15 वर्ष बाद यदि सावरकर जी जैसे लोगों की आवाज शांत हो जाए तो देश के साथ गद्दारी करते हुए उर्दू निष्ठ हिंदुस्तानी हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा बना दिया जाएगा।
जब संविधान के अनुच्छेद 343 में देश की राष्ट्रभाषा हिंदी और राष्ट्र लिपि देवनागरी घोषित कर दी गई तो हमने उसके ' किंतु परंतुओं' पर कोई ध्यान न देकर अपने आपको इस बात के लिए निश्चिंत कर लिया कि अब हमारी विजय हो गई है। जबकि सच यह था कि हम एक भ्रांति में रख दिए गए थे। गांधी जी के शिष्य नेहरू ने संस्कृतनिष्ठ हिंदी को मारने के लिए काम निरंतर जारी रखा। उन्होंने और उनके उत्तराधिकारियों ने तथा उनके मानने वालों ने देश में न केवल वेदों को गंवार ग्वालों के गीत माना बल्कि रामायण, महाभारत गीता को भी काल्पनिक पात्रों की कहानी अथवा उपन्यास कहकर उनका मूल्य कम कर दिया। यह केवल इसलिए किया जा रहा था कि आप अपनी मूल भाषा से दूर हो जाएं और गांधी नेहरू की काल्पनिक राष्ट्रभाषा उर्दूनिष्ठ हिंदुस्तानी हिन्दी को स्वीकार कर लें। जबकि थे निश्चित था कि यदि हम गांधी नेहरू की उर्दूनिष्ठ हिंदुस्तानी हिंदी को अपना लेते तो न तो आज हमारे पास वेद होते। न वेद के मंत्र होते। न ही उपनिषद होते और न ही रामायण, महाभारत , गीता आदि प्रेरक ग्रंथ होते यदि होते भी तो उन्हें पढ़ने वाला हमारे पास कोई नहीं होता।
स्वाधीनता के पश्चात नेहरू के संरक्षण में अनेक ऐसी संस्थाओं की स्थापना की गई जो चुपचाप मुसलमानों का सहयोग कर रही थीं। उनका उद्देश्य हिंदुस्तानी हिंदी को सम्मानित स्थान पर स्थापित करना था। यही कारण रहा कि देश में तेजी से उर्दू मिश्रित हिंदी का प्रचलन बढ़ा। पाठ्य पुस्तकों में उर्दूनिष्ठ हिंदी लागू कर दी गई। जिससे कि आने वाली पीढ़ी को हिंदुस्तानी के सांचे में ढाल दिया जाए। महाराष्ट्र में भी महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार सभा की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य भी हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना था। यह सारा कार्य इसलिए हो रहा था कि यदि सावरकर जी जैसे लोगों ने स्वामी दयानंद जी के 'सत्यार्थ प्रकाश' की संस्कृतनिष्ठ हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलवा भी दी है तो भी हम उसका अपने ढंग से विरोध करते रहेंगे अथवा कम से कम इतना तो कर ही लेंगे कि बिल्ली खाएगी नहीं तो बिखेर तो अवश्य ही देगी।
महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री बालासाहेब खेर और वरिष्ठ अधिकारी 'हिंदुस्तानी कल्चर सोसायटी इलाहाबाद' के सदस्य थे । उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो सावरकर जी की संस्कृतनिष्ठ हिंदी का समर्थक हो। स्पष्ट है कि नेहरू जी ने महाराष्ट्र में उन लोगों को आगे बढ़ाना आरंभ किया जो सावरकर जी के विरोध में खड़े थे या कहिए कि सत्ता स्वार्थी होकर गांधी नेहरू के तलवे चाट रहे थे और वह सब कुछ करने के लिए तैयार थे। जिसे गांधी नेहरू करवाना चाहते थे। इन जैसे लोगों ने ही आगे चलकर यह परिवेश बनाया कि हम हिंदी का विरोध करते हैं। महाराष्ट्र का जनसाधारण यह नहीं समझ पाया कि कौन सी हिंदी का विरोध हो रहा है ? हिंदुस्तानी निष्ठ महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार सभा के अध्यक्ष एच वी पोतदार ने समिति के अध्यक्ष के रूप में एक बार कहा था कि यद्यपि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है तो भी उसका स्वरूप तो हिंदुस्तानी ही रहेगा अर्थात हम उसे उर्दूनिष्ठ हिंदी के रूप में ही अपनाएंगे। हमारी पाठ्यक्रम समिति का कार्य भी इसी प्रकार चलेगा। काका कालेलकर जो कि हिंदुस्तानी तालीम के प्रमुख नेता थे,भी गांधी जी की उर्दू निष्ठ हिंदुस्तानी के ही समर्थक थे। उन्होंने राजकोट की एक सभा में कहा था कि भारत में हिंदुस्तानी अर्थात उर्दू मिश्रित खिचड़ी हिंदी भाषा ही चलेगी। यही हमारी राष्ट्रभाषा है। उर्दू लिपि ही राष्ट्रलिपि होगी। यही गांधी जी का आर्ष दर्शन है। उन्होंने कहा था कि उर्दूनिष्ठ हिंदी को स्वीकार करने से संस्कृति का समन्वय सध जाता है अर्थात गंगा जमुना संस्कृति फूलने फलने लगेगी । इसका अभिप्राय है कि आप अपने अतीत को भूल जाओ। अपनी संस्कृत को भूल जाओ। अपनी संस्कृति को भूल जाओ और केवल उर्दू निष्ठ हिंदी के माध्यम से उर्दू , अरबी फारसी की आरती उतारने लगो तो इससे देश की संस्कृति का संबंध सध जाएगा।
ऐसे तूफानों के बीच खड़े होकर जिन्होंने चुनौतियों से संघर्ष किया, देश की राष्ट्रभाषा के लिए काम किया आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद जी महाराज के सपनों का भारत बनाने का काम किया । उनकी भावनाओं का सम्मान किया। उन जैसे महान सपूतों को आज लोग कायर कहते हैं और बहुत से हिंदू हैं जो इस बात पर ताली बजाने लगते हैं, कहने लगते हैं कि सावरकर जी वास्तव में कायर थे। इन्हें नहीं पता कि सावरकर जी तो कायर नहीं थे, परन्तु तुम कायर अवश्य हो । क्योंकि तुम स्वयं अपनी संस्कृति और अपनी भाषा के लिए संघर्ष करने का सारा जज्बा खो चुके हो।
किसी भी नई संस्था समिति या राजनीतिक दल का नाम अंग्रेजी में रखने का प्रचलन भी देश के पहले प्रधानमंत्री की उर्दूनिष्ठ हिंदुस्तानी हिंदी के प्रति विशेष लगाव के चलते ही संभव हुआ। देश के पहले प्रधानमंत्री को प्रसन्न करने और उनसे अपने काम निकालने के लिए अपनी संस्थाओं के नाम देश की राष्ट्रभाषा में न रखकर नेहरू जी की पसंद की भाषा में रखने आरंभ किये। काका कालेलकर जी का ही उदाहरण लें । उनसे गलती से भाषण में हिंदी का शब्द निकल गया तो उन्होंने तुरंत कहा 'कौमी एकदिली है।' उन्होंने कहा था कि 'उर्दूनिष्ठ हिंदुस्तानी' को राष्ट्रभाषा बनाने और राष्ट्रलिपि बनाने से हम संपूर्ण एशिया का संगठन कर सकते हैं।
काका कालेलकर जी का संकेत इस ओर था कि जब हमारे देश में उर्दू को राष्ट्रभाषा बना दिया जाएगा तो पड़ोस के मुस्लिम देशों को भी हम अपने साथ लाने का प्रयास कर सकेंगे। ऐसा कहते समय काका कालेलकर यह बात भूल गए थे कि यदि हमने उर्दू को राष्ट्रभाषा बना दिया या उर्दूलिपि को राष्ट्र लिपि के रूप में मान्यता प्रदान कर दी तो हिंदू अपने आप ही अपने अस्तित्व को समाप्त करने पर सहमति व्यक्त कर देगा। तब न हिंदू बचेगा न हिंदू संस्कृति बचेगी । न वेद बचेगा, न वैदिक संस्कृति बचेगी अर्थात न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। इस बात को सावरकर जी ने गंभीरता से समझ लिया था। यही कारण था कि उन्होंने अपने आप को दयानंदवादी सिद्ध करते हुए स्वामी जी के सपनों का भारत बनाने की दिशा में राष्ट्रभाषा हिंदी को लेकर कई महत्वपूर्ण कार्य किये। सचमुच राष्ट्र उनका ऋणी है। दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती रेखा गुप्ता जी द्वारा पंडित मदन मोहन मालवीय जी , दयानंद जी महाराज और वीर सावरकर जी के चित्र दिल्ली विधानसभा में लगाने से लोगों को इन तीनों महापुरुषों को समझने का अवसर प्राप्त होगा। इसलिए श्रीमती रेखा जी को उनके ऐतिहासिक और साहसिक निर्णय के लिए पुनः एक बार बधाई और धन्यवाद।


 ( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )
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