गुरु-शिष्य
मार्कण्डेय शारदेय:
विकासात्मक जीवन को तीन रूपों में देखना होगा।सामाजिक, शैक्षणिक एवं आध्यात्मिक।यों तो तीनों ही शिक्षा से सम्बद्ध हैं, परन्तु बीचवाले को छोड़ दोनों की डिग्रियाँ नहीं होतीं।डिग्रियाँ किसी विभाग में कार्यरत रहने के लिए अत्यावश्यक होती हैं।आज योग्यता का निर्धारण इन्हीं से होता है।पहले रूप की बात करें तो प्रारम्भिक विकास में माता-पिता का बड़ा योग होता है।इन दोनों में भी महती भूमिका माँ की ही होती है।वह गर्भधारण से बच्चे के घर-आँगन में दौड़ने तक एक-एक कदम पर क्षण-क्षण दृष्टि रखती है।सन्तान को कैसा बनाना है, मनोमूर्ति हमेशा पास रखती है। इतिहास साक्षी है कि बहुतों की उन्नति में माता की भूमिका बढ़कर रही है, पर ऐसा नहीं कि जो नामी नहीं, उनके साथ माँ का वैसा कार्य नहीं रहा। माँ एक होती है।वह कलेजे के टुकड़े को ममता के रस से सदैव पुष्ट करती है।परन्तु; इसी में पढ़ाना-सिखाना भी जारी रखती है।गलत-सही का बोध कराती रहती है।इसी में कभी डाँट-डपट, चाँटा-थप्पड़ भी परोस देती है।लेकिन; जल्दी द्रवित भी हो जाती है।खीज दुलार में बदल जाती है।
पिता का शिक्षण माँ के समान ही होता है।पर; पढ़ाई थोड़ी कड़ी हो जाती है।सन्तान को बाहर-भीतर का दायरा बताना होता है।क्योंकि; अब घर ही नहीं होता।अब तो पास-पड़ोस, मुहल्ले-टोले, गाँव-नगर भी होते हैं।ऐसे में व्यावहारिक ज्ञान जरूरी हो जाता है।पिता का वात्सल्य षड्रस भोजन की तरह हो जाता है।कभी मीठा तो कभी कड़वा।कभी कसैला तो कभी तीखा भी।परन्तु; स्वास्थ्य की दृष्टि से कब क्या जरूरी है, यह तो स्वास्थ्य-विशेषज्ञ ही जानता है न! पिता को पता हो जाता है कि अभी नहीं डाँटा तो कल के लिए अच्छा नहीं।डाँट-मारकर वह एक ओर जिम्मेदार अभिभावकत्व निभाता है तो दूसरी ओर अपने अंश को समझदार जीवन-पथिक बनाना चाहता है।
जब बच्चा घर से स्कूल जाता है तो माता-पिता के अतिरिक्त अब शिक्षक का दायित्व बढ़ जाता है।वह भी उसमें अपना रूप देखना चाहता है।इस कारण उसकी पात्रता बढ़ाने का उपाय पर उपाय करता है और पाठ्य-सामग्री ऐसे थोड़ा-थोड़ा परोसता है कि भूख बढ़ती रहे, ललक होती रहे।उम्र के साथ शिक्षाएँ भी ऊपर जाती-जाती उच्च, उच्चतर, उच्चतम हो जाती हैं।फिर; नवजात से शिशु, शिशु से बालक, बालक से किशोर, किशोर से युवा-प्रौढ़ होता वह देश का जिम्मेदार नागरिक बन घर-परिवार, देश-दुनिया के समक्ष एक पहचान बनता है।
जीवन के रहस्यों पर व्यक्ति के मन में बचपन से ही अनुत्तरित प्रश्न बने रहते हैं।वह लोगों से कुछ-कुछ पूछता-सुनता भी है और स्वयं गुनता भी है।परन्तु; बहुतेरे नजरअन्दाज कर जाते हैं, जैसे कि उन्हें इन गुत्थियों से कोई लेना-देना नहीं।कुछ हल्का-फुल्का जानकर बिसार देते हैं।कुछ ऐसे अवश्य होते हैं, जो आध्यात्मिक जिज्ञासा से भरे होते हैं।कुछ तो दबाए रखते हैं, कुछ दोनों को समेटे चलते हैं।परन्तु; कुछ एकदम विरक्त हो घर-द्वार तक छोड़कर अध्यात्मविद्या के समुपासक हो जाते हैं।
खैर; कहा जाता है ‘बिनु गुरु होंहि न ज्ञान’।सही भी है।परन्तु; एक ही गुरु से सम्पूर्ण जीवन धन्य नहीं हो सकता, ज्ञान का पूर्ण विकास नहीं हो सकता।इसीलिए मानें या न मानें, जीवन में पग-पग पर गुरु मिलते रहते हैं।दत्तात्रेय को लें तो उन्होंने जिन चौबीसों की चर्चा की है, वे न तो किसी गुरुकुल के उपाध्याय थे और न आचार्य-कुलपति ही।उन्होंने मानव जाति के लोगों से तो सीखा ही, मानवेतरों, छोटे जीवों से भी सीखा।ज्ञान हर जगह है, ज्ञाता हर जगह हैं, ज्ञेय हर जगह हैं; जिज्ञासु होना सबसे आवश्यक है।

‘कूर्मपुराण’ के उपरि विभाग में गुरुवर्ग का उत्तम निदर्शन मिलता है; जो इस प्रकार है-
‘उपाध्यायः पिता ज्येष्ठो भ्राता चैव महीपतिः।
मातुलः श्वशुरः त्राता मातामह-पितामहौ।।
वर्णज्येष्ठः पितृव्यः च पुंसोsत्र गुरवः स्मृताः।
माता मातामही गुर्वी पितुर्मातुः च सोदराः।
श्वश्रूः पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरवः स्त्रियः।(अध्याय:12.26-27)
अर्थात्; उपाध्याय (विषय-शिक्षक), पिता, बड़ा भाई, राजा, मामा, ससुर, रक्षक, नाना, दादा, जातिश्रेष्ठ, ताऊ-चाचा; ये पुरुष गुरु हैं तो माँ, नानी, गुरुपत्नी, दादी, माता-पिता की बहनें (मौसी, बुआ), दीदी, सास एवं धात्री (धाई); ये स्त्रियाँ भी गुरु हैं।
वस्तुतः हमारे निर्माण में बाहरी या भीतरी रूप से इन सबका बड़ा योगदान रहता है।उपाध्याय, त्राता और राजा; ये तीन हमारे बाह्य जीवन के सुपोषक, संवर्द्धक एवं संरक्षक हैं तो धात्री आभ्यन्तर-बाह्य दोनों का।माता-पिता से तो यह देह ही बनी होती है।लेकिन; शेष तो बन्धुओं के ही अन्तर्गत आते हैं।अतः ये अन्तरंग ही होते हैं।मुख्यार्थ यह कि ये सभी समादरणीय हैं।इनका निरादर, इनसे द्वेष व विवाद अधःपतन का कारण माना गया है- ‘गुरुद्वेषी पतत्यधः’ (वही,12.30)।इनमें भी पाँच को अधिक महत्त्व दिया गया है-
‘यो भावयति या सूते येन विद्योपदिश्यते।
ज्येष्ठो भ्राता च भर्ता च पंचैते गुरवः स्मृताः’।। (वही,12320)
यानी; पिता, माता, विद्यादाता, ज्येष्ठ भ्राता एवं जीविकादाता; ये पाँच प्रमुख गुरु हैं।
‘गुरु’ शब्द ‘गृ’ धातु (शब्द करना) और ‘उत्’ प्रत्यय के योग से बना है।हाँ, गृ निगरणे (खाना, निगलना) धातु से भी बना है।परन्तु वह गुरु भारीपन का सूचक है और पहला गुरु ही ज्ञानगौरव का।इसलिए इसकी व्युत्पत्ति तीन तरह से बताई गई है- (1) गृणाति उपदिशति वेदादि-शास्त्राणि इन्द्रादि-देवेभ्यः इति। (2) गीर्यते स्तूयते देव-गन्धर्व-मनुष्यादिभिः। (3) गीर्यते स्तूयते महत्त्वात् इति।
इन तीनों में प्रारम्भिक दो तो आंगिरस बृहस्पति के ही वाचक हैं।तीसरा ही मनुष्यलोक के समादरणीयों का।फिर भी; दूसरे में भी हमारा हिस्सा निकल ही आता है, जिसमें देव, गन्धर्व, मनुष्य आदि कहा गया है।द्वितीय-तृतीय दोनों में स्तुति की बात आई है, इसलिए गुरु स्तवनीय हैं।परन्तु; प्रथम व्युत्पत्ति भले ही एक नाम का बोधक हो, पर वहीं कर्म भी ध्वनित हो रहा है-‘उपदिशति वेदादि-शास्त्राणि’ (जो वेद आदि शास्त्रों का उपदेश करते हैं)। बस; यहीं से तो अर्थ-विस्तार होते शास्त्रोपदेशकों तक यह पद आ जाता है।और; देवगुरु की मूर्ति ही अपने गुरु में दिखाई देने लगती है।अब शास्त्र अपरा विद्या से सम्बन्धित हो या परा विद्या से, सबके उपदेष्टा इस नाम से मण्डित होने लगे।
हमारी संस्कृति गुरु को भी पितृस्थान देती है और मानती है कि सन्तान दो तरह की होती है: जन्मना तथा विद्यया।कहा भी गया है- ‘यथा पुत्रस्तथा शिष्यो न भेदः पुत्र-शिष्ययोः’ (जैसा पुत्र, वैसा शिष्य; दोनों में कोई भेद नहीं)। दूसरी तरह से मनु भी कहते हैं- ‘अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः’ (2.153), ज्ञानदाता पिता है।हमारे पुरोहित भी इसी वर्ग में आते हैं।उपाध्याय और आचार्य दोनों की दूरी गुरु में पट जाती है, क्योंकि विषय-शिक्षक हों या कुलपति दोनों इस एक सम्बोधन में एकत्व पा लेते हैं।
वैदिक गुरु की महिमा बढ़ी-चढ़ी रही ही, पूरी उपनिषदें भी गुरूक्तियाँ ही रहीं।परन्तु; तान्त्रिक गुरु की महत्ता और ऊपर चढ़ निकली।जहाँ वैदिक गुरु सेव्य ही रहे, वहाँ तान्त्रिक गुरु उपास्य हो गए।इसीलिए ‘रुद्रयामल’ प्रातःकृत्य में कहता है-
‘प्रातः शय्यादिकं कृत्वा पुनः शय्यास्थितः पशुः।
गुरुं संचिन्तयेत् शीर्षाम्भोजे सहस्रके दले’।।(पटल-2.11)
अर्थात्; प्रातःकालीन नित्य क्रिया के बाद पशुभाव में संस्थित साधक पुरुष शय्या पर आकर सहस्रारचक्र में अपने गुरु का ध्यान करे।
लेकिन; गुरु के इतने लक्षण बताए गए हैं, वे तो दुर्लभ ही हैं।
‘चिदम्बररहस्य’ के अनुसार- ‘नारायणे महादेवे मातापित्रोश्च राजनि।यथा भक्तिः भवेद् देवि! तथा कार्या निजे गुरौ’।। अर्थात्; जैसे श्रीहरि, महादेव, माता-पिता तथा राजा की भक्ति की जाती है, वैसे ही अपने गुरु की भी करनी है।इतना ही क्यों? अपने पूर्वजों की भाँति गुरु की भी तीन गुरुपीढ़ियों को भी ग्रहण कर गुरु के गुरु को परम गुरु, परम गुरु के गुरु को परमेष्ठी गुरु और उनके गुरु को परात्पर गुरु कहकर वन्दन चला।
यों तो गुरुपरम्परा की धारा वैदिक काल से ही अविरत प्रवहमान रही है, परन्तु शांकर पीठों की स्थापना के बाद से इसमें और व्यापकता आई।संन्यासियों का महापर्व गुरुपूर्णिमा है।उस दिन शिष्यगण अपने-अपने गुरुओं के यहाँ जाकर अपनी श्रद्धा निवेदित करते हैं।परन्तु; एक विधान भी निकल आया, जिसमें सारी भारतीय परम्परा ही समाहित हो गई।यह विधान भी वैष्णवप्रधान ही रहा।
‘धर्मसिन्धु’ में संकेतित विधि को अपने शब्दों में कहा जाए तो एक चौकोर वस्त्र आदि पर वर्गाकार या भूपुर के रूप में हल्दी-रोली से घेरा बना लें।फिर; उसके बीच में तीन छोटे-छोटे ऐसे वर्ग बनाएँ कि पूरब-पच्छिम के हिस्से बराबर छूटे हों।इन तीनों वर्गों के अगल-बगल भी थोड़ा अन्तराल हो।इन तीनों के बीच में पहले श्रीकृष्ण-पंचक (श्रीकृष्ण को मध्य में रखकर प्रदक्षिण / पूर्वादि क्रम से उनके चतुर्व्यूहों वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध) का अक्षतपुंज पर नाममन्त्र से ही पूजन करें।इसके बाद दक्षिण भाग में व्यासपंचक (व्यासजी को मध्य में रखकर पूर्वादि क्रम से सुमन्तु, जैमिनि, वैशम्पायन तथा पैल) का पूजन करें।तब श्रीकृष्ण-पंचक के बाईं ओर भाष्यकार श्रीशंकराचार्य-पंचक (श्रीशंकराचार्य को बीच में रख प्रदक्षिण क्रम से पूरब से उत्तर तक क्रमशः पद्मपाद, विश्वरूप (सुरेश्वर), त्रोटक और हस्तामलक) की पूजा करें।अब श्रीकृष्ण के ही सन्निकट दाहिने ब्रह्माजी का और बाएँ शिवजी का तथा वासुदेव, संकर्षण आदि के ऊपर व पूर्वादि क्रम से सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार का पूजन करें।
अब श्रीकृष्ण-पंचक के आगे क्रमशः गुरु, परम गुरु, परमेष्ठी गुरु, परात्पर गुरु के साथ-साथ ब्रह्मा, वसिष्ठ, शक्ति, पराशर, व्यास, शुक, गौडपाद, गोविन्द एवं ब्रह्मनिष्ठ शंकराचार्य का पूजन करें।भूपुर व वर्ग की सीमा में ही अग्निकोण में गणेश, ईशानकोण में क्षेत्रपाल, वायव्यकोण में दुर्गा तथा नैर्ऋत्यकोण में सरस्वती की पूजा करें।इसके बाद पूरब से ईशानकोण तक में इन्द्र आदि लोकपालों की पूजा करें।
विधान की व्यापकता में हम आदि से अद्यतन तक स्वयं को जोड़ पाते हैं और समस्त गुरुओं के प्रति हमारी श्रद्धा वर्द्धमान दीखती है।
जितना महत्त्व हमारे गुरुओं का है, उनसे थोड़ा भी कम महत्त्व शिष्यों का नहीं। कालिदास कहते हैं-
‘पात्रविशेषे न्यस्तं गुणान्तरं शिल्पमाधातुः।
जलमिव समुद्रशुक्तौ मुक्ताफलतां पयोदस्य’।।(मालविकाग्निमित्र: 1.6)
अर्थात्; जैसे वर्षा की बूँदें समुद्र में स्थित सीपियों के खुले मुँह में पड़कर मोती बन जाती हैं, वैसे ही गुण ग्रहण की विशेष क्षमतावाले सामान्य व्यक्ति भी गुणिजनों के सम्पर्क में आकर गुणवान बन जाते हैं।
जैसे योग्य गुरु योग्य शिष्य के जनक होते हैं, वैसे योग्य शिष्य योग्य गुरु के प्रतिष्ठापक होते हैं।आजतक जो भी गुरु इतिहास के स्वर्णाक्षरों में दर्ज हैं, वे अपने शिष्यों के कारण ही।एक की योग्यता से कुछ नहीं होता।हाँ; ‘गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है’; कबीर का यह कथन तभी सही है, जब वह अड़ियल टट्टू न हो। ‘शिष्यते असौ’ व ‘शासितुं योग्यः’: ये दोनों व्युत्पत्तियाँ गुरु की कड़ाई की ओर नहीं, शिष्य की मुलायमियत की ओर ही इशारा करती हैं।इसीलिए कहा गया है-‘वाङ्मनः कायवसुभिः गुरुशुश्रूवणे रतः।
एतादृश-गुणोपेतः शिष्यो भवति नारद’!।
(वाणी, तन, मन एवं धन से जो सदा गुरुसेवा में लगा रहे, ऐसा गुणवान ही शिष्य हो सकता है।)
‘देवताचार्य-शुश्रूषां मनोवाक्काय-कर्मभिः।
शुद्धभावो महोत्साहो बोद्धा शिष्य इति स्मृतः’।।
(जो शुद्ध विचारवाला, अति उत्साहयुक्त बुद्धिमान है, जो मन, वाणी एवं कर्म से देवपूजन, गुरुसेवा करनेवाला हो; वही शिष्य कहला सकता है।
बुद्धिमान, जिज्ञासु, उत्साही होना अलग बात है और सत्पुत्र की तरह आत्मसमर्पी होना अलग।इसीलिए कहा गया है-
‘गुरुः पिता गुरुः माता गुरुः देवो गुरुः गतिः।
शिवे रुष्टे गुरुः त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन’।।(रुद्रयामल:2.66)
हमारे यहाँ शिक्षा में तो गुरुमहिमा अपार है ही, दीक्षा में अपरम्पार है।दीक्षा के बाद ही मन्त्र जपने योग्य होता है, इसलिए तन्त्रशास्त्र में इसकी बड़ी प्रशस्ति है।‘शारदातिलक’ स्पष्ट कहता है- ‘विना यया न लभ्येत सर्वमन्त्र-फलं यतः’ (4.1); यानी, दीक्षा के बिना मन्त्रों के जपने से कोई लाभ नहीं।इसकी (दीक्षा की) परिभाषा में वहीं कहा गया है-
‘दिव्यं ज्ञानं यतो दद्यात् कुर्यात् पापस्य संक्षयः।
तस्माद् दीक्षेति सम्प्रोक्ता देशिकैः तन्त्रवेदिभिः’।।(4.2)अर्थात्; जो दिव्य (अलौकिक) ज्ञान देती है तथा जो पापों का नाश करती है, उसे ही तन्त्रज्ञ दीक्षा कहते हैं।
(मार्कण्डेय शारदेय: द्वारा रचित यह रचना गुरुपर्व पर 'धर्मायण', हिन्दी मासिक, महावीर मन्दिर, पटना में पूर्व प्रकाशित हो चुकी है )
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews #Divya Rashmi News, #दिव्य रश्मि न्यूज़ https://www.facebook.com/divyarashmimag
0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com