गुरु पूर्णिमा: वैदिक परंपरा में गुरु-तत्त्व ही परमतत्त्व हैं

लेखक: अवधेश झा*
वेदों में गुरु को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। वह 'आचार्य', 'ऋषि', महर्षि, ब्रह्मर्षि और 'द्रष्टा' के रूप में हैं। वे केवल शाब्दिक ज्ञान नहीं, अपितु आत्मानुभूति का उत्तम माध्यम हैं। अब सर्व प्रथम उन्हें प्रणाम करता हूँ, जो गुरु के ज्ञान के स्रोत हैं तथा उन्हीं के श्रुति और स्मृति पथ का गुरु भी अनुसरण करते आएं हैं।
शान्ताकारं ब्रह्मरन्ध्रस्थितं तेजोरूपं दिनाकरम्।
विचिन्त्ये सच्चिदानन्दं श्रीकृष्णं योगविग्रहम् ॥
निःशब्दं ज्ञानदीपं तं परगुरुं भावतो मुदा।
वन्दे विश्वप्रकाशं च मोक्षकृद्ब्रह्मसङ्गिनम् ॥
मैं उस सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ जो शांत रूपधारी, ब्रह्मरन्ध्र में स्थित, प्रकाशस्वरूप हैं; जो ज्ञानदीप, मौनमूर्ति, योगविग्रह और समस्त विश्व को प्रकाशित करने वाले, ब्रह्म से संलग्न कर देने वाले परमगुरु हैं।

उसके बाद श्रीगुरु को नमस्कार है:
ॐ नमः परमहंसाय सच्चिदानन्दरूपिणे।
गुरवे सर्वलोकानां तत्त्वबोधप्रदायिने ॥
परमहंसस्वरूप, सच्चिदानन्दरूप, समस्त लोकों के अधिपति तथा तत्त्वज्ञान देने वाले श्रीगुरु को नमस्कार है।
ज्ञानशक्तिसमारूढस्तत्त्वमालाविभूषितः।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
जो गुरु ज्ञान और शक्ति दोनों में समरूप प्रतिष्ठित हैं, तत्व की माला से सुशोभित हैं और जो भुक्ति (सांसारिक सुख) तथा मुक्ति (परम मोक्ष) के दाता हैं, ऐसे श्रीगुरु को कोटि -कोटि नमन।
गुरु के महत्व के संबंध में श्वेताश्वतर उपनिषद (6.23) कहता है:
यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥
जिसको ईश्वर के समान ही गुरु के प्रति परा भक्ति होती है, उसी के लिए उपनिषदों का ज्ञान स्वयं प्रकाशित होता है।
छान्दोग्य उपनिषद (6.14.2):
आचार्यवान् पुरुषो वेद।
— "केवल वही व्यक्ति वेद का सही ज्ञान प्राप्त करता है, जिसके पास आचार्य हो।"
कठोपनिषद (1.2.8):
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः, तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥
आत्मा न तो वाक्चातुर्य से, न बुद्धि से और न अधिक श्रवण से प्राप्त होता है; वह उसी को प्राप्त होता है जिसे यह आत्मा स्वयं चुनता है और उसके हृदय में स्वयं को प्रकट करता है। गुरु उसी आत्मा का प्रतिनिधि है।
वेद के संकलन और संपादन करने वाले महर्षि वेद व्यास-जयंती ही गुरु पूर्णिमा का ऐतिहासिक मूल है। गुरु पूर्णिमा महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास की जयंती के रूप में मनाई जाती है। वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर, पुराणों की रचना कर, महाभारत जैसा सार्वकालिक महाग्रंथ देकर संसार को एक स्थायी आध्यात्मिक आधार प्रदान किया। वेद व्यास के संबंध में शास्त्र कहता है:
व्यासाय विष्णुरूपाय, व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये, वासिष्ठाय नमो नमः॥
— वेदव्यास विष्णु के अवतार हैं; वे ही ब्रह्मविद्या के निधि हैं; वसिष्ठ कुल में उत्पन्न उन मुनिवर को मैं नमन करता हूँ।
गुरुपरंपरा का वैदिक अनुक्रम में महर्षि वेदव्यास 28 वेदव्यासों की शृंखला में है — प्रत्येक द्वापर युग में एक वेदव्यास होते हैं, जो वेदों को पुनः व्यवस्थित करते हैं। एवं व्यास → शुकदेव → सुत जी → वैशम्पायन → जैमिनी → सुमन्तु →... यह परंपरा गुरु-शिष्य परंपरा की आदर्श मिसाल है।
गुरु का दार्शनिक स्वरूप ब्रह्मविद् है, इसे मुण्डकोपनिषद (1.2.12) भी प्रमाणित करता है:
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्
समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥
— ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए शिष्य को गुरु के पास जाना चाहिए, जो वेदों का ज्ञाता और ब्रह्म में स्थित हो।
और गीता में भगवान श्रीकृष्ण भी कहते हैं
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥
— गुरु के चरणों में समर्पण करके, विनयपूर्वक प्रश्न करके और सेवा से—तत्वदर्शी ज्ञानीजन तुझे ज्ञान प्रदान करेंगे।
गुरु पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा को आती है — यह समय वर्षा ऋतु के आरंभ का है। यह काल 'चातुर्मास' के नाम से जाना जाता है — जब साधु-संत एक स्थान पर ठहर कर ज्ञान का सत्संग करते हैं। जैसे वर्षा की बूंदें तप्त पृथ्वी को शीतल करती हैं, वैसे ही गुरु का ज्ञान हमें तप्त कर्मबंधनों से मुक्त कर शांत करता है। यह पर्व केवल उत्सव नहीं — स्व-जागरण और कृतज्ञता का दिवस है। यह वह दिन है जब हम गुरु के प्रति अपने प्रेम, समर्पण और श्रद्धा को व्यक्त करते हैं और जीवन में आत्मचिंतन, अध्ययन तथा साधना का संकल्प लेते हैं।
गुरु के बिना शास्त्र का ज्ञान असंभव है, यही कारण है कि उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता जैसे ग्रंथों को समझने के लिए गुरु आवश्यक हैं। शास्त्र कहता है। शास्त्रस्य गुरुर्वाक्यम् — “गुरु का वचन ही शास्त्र है।”
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
गुरु पूर्णिमा हमें यह स्मरण कराती है कि जीवन का सत्य पथ केवल गुरु की कृपा और आत्मप्रयास से ही उपलब्ध होता है। गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं!
ॐ श्री गुरुभ्यो नमः 🕉️
*(लेखक: अवधेश झा, वेदांत, योग और ज्योतिष शास्त्र के विद्वान हैं तथा ट्रस्टी, ज्योतिर्मय ट्रस्ट (यूनिट ऑफ योग रिसर्च फाउंडेशन, मियामी, फ्लोरिडा, यूएसए) एवं संस्थापक - श्रीहरि ज्योतिष केंद्र, पटना)
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