"दशरथ महल की अद्भुत लीला: श्रीरामप्रसाद जी और पलटूदास जी की भक्ति कथा"

✍ लेखक – प्रेम सागर पाण्डेय
अयोध्या नगरी की गोद में बसी अद्वितीय श्रद्धा की एक जीवंत कथा आज भी जीवंत है — 'बड़ी जगह' अथवा 'दशरथ महल' की। कनक भवन और हनुमानगढ़ी के बीच स्थित यह आश्रम भक्तों के हृदय में राम भक्ति की मधुर गाथा बनकर समाया हुआ है। यहां की स्मृतियाँ न केवल ऐतिहासिक हैं, बल्कि भक्त और भगवान के बीच अनुपम संवाद की प्रेरणा भी हैं।
बहुत वर्षों पूर्व जब अयोध्या धाम में जनसैलाब नहीं उमड़ता था, जब श्रद्धा के स्वरूप सरल और सघन थे, तब इस पवित्र स्थान के परम सेवक और भक्ति के प्रतीक बन चुके थे – श्रीरामप्रसाद जी। पूरी श्रद्धा और तप के साथ वे आश्रम और मंदिर की सेवा में रत रहते थे। मंदिर में श्रीराम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न जी एवं हनुमान जी की सेवा होती थी, जहाँ नित्य भोग, आरती और भजन का सजीव वातावरण बना रहता था।
यह वह युग था जब साधु-संत धन-संपत्ति से दूर, भगवान के नाम पर आश्रित रहते थे। श्रद्धालु जो भी अर्पण करते, वही उनका भोजन बनता। आश्रम का संपूर्ण भरण-पोषण मंदिर में आये चढ़ावे से होता था, जिसे प्रतिदिन पलटू नामक एक बनिए को सौंपा जाता था। वही बनिया राशन-सामग्री का प्रबंध करता।
भगवान की लीला देखिए – एक दिन ऐसा आया जब कोई भी चढ़ावा नहीं आया।
समूचा मंदिर और आश्रम खाली हाथ था। श्रीरामप्रसाद जी ने निष्ठा से निर्णय लिया कि चाहे जैसे भी हो, प्रभु को भूखा नहीं रखा जा सकता। उन्होंने दो संतों को पलटू बनिए के पास भेजा और विनती की कि वह उधार में कुछ अन्न दे दे — ताकि प्रभु को भोग तो लग सके। पर बनिए ने यह कहकर मना कर दिया कि “महाराज से मेरा लेन-देन नकद का है... मैं उधार नहीं देता।”
परमहंस संत श्रीरामप्रसाद जी ने यह सुनकर भगवान को जल का ही भोग अर्पित किया और स्वयं भी जल पीकर रह गए। सभी संतों ने उस दिन निर्जल उपवास रखा। रात्रि का समय आया, और नियमानुसार, प्रभु को पीताम्बर ओढ़ाकर शयन कराया गया। रामप्रसाद जी भूख से व्याकुल तन और दृढ़ आत्मा के साथ भजन सुनाते रहे।
और फिर घटी वह लीला — जो युगों तक भक्तों को श्रद्धा का संदेश देती रहेगी।
आधी रात को पलटू बनिए के द्वार पर दस्तक हुई।
चार अलौकिक बालक — एक ही पीताम्बर में लिपटे हुए — उसकी आंखों के सामने खड़े थे। उन्होंने कहा – “बाबा ने भेजा है, इस पीताम्बर के कोने में 1600 रुपये हैं, राशन भिजवा देना।”
बनिए ने जब वह पीताम्बर खोला, तो सचमुच उसमें चांदी के सिक्के थे — आज के युग में जिसकी कल्पना कठिन है। बनिया स्तब्ध रह गया। उसने आग्रह किया कि “आज से रोज़ राशन जाएगा, कभी भी इनकार नहीं होगा।” चारों बालकों ने कहा – “अब से रोज़ सुबह भेज देना... आज के बाद कोई साधु भूखा न रहे।”
परम प्रेम में डूबा पलटू बनिया समझ न सका कि वह कौन से बालक थे... परंतु उन्होंने उसका हृदय ही बदल दिया।
प्रभात हुआ। मंदिर के पट खुले तो देखा गया — प्रभु का पीताम्बर गायब था।
बड़ी व्याकुलता में सभी खोज ही रहे थे कि तभी पलटू बनिया स्वयं आया, गाड़ी भर राशन के साथ। चरणों में गिर पड़ा और विनती की — “महाराज, क्षमा करें। ये लीजिए आपका पीताम्बर, और बच्चों को एक बार फिर देखना चाहता हूँ जिन्होंने रात में धन पहुँचाया था।”
रामप्रसाद जी चौंक गए। उन्होंने पूछा – “कौन से बच्चे?”
बनिए ने पूरी रात्रि की कथा कही। जब पीताम्बर देखा गया, तो वह वही था — प्रभु का ओढ़ाया गया वस्त्र।
अब श्रीरामप्रसाद जी सब समझ गए — वह स्वयं राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ही थे — जो भक्त की लाज रखने आधी रात को बनिए के घर पधारे थे।
श्रीरामप्रसाद जी का हृदय भर आया। मंदिर जाकर प्रभु के चरणों में गिर पड़े और रोने लगे –
“हे प्रभो...! जीवन भर सेवा की, दर्शन न हुए... और इस बनिए को रात में दर्शन दिए।”
इस महालीला के बाद पलटू बनिए ने वैराग्य ले लिया और वे ही आगे चलकर ‘श्रीपलटूदास जी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
और श्रीरामप्रसाद जी को भी वह दिन आ ही गया जब भजन करते-करते वे मूर्छित हो गए और उसी अवस्था में उन्हें चारों भाइयों और माताओं सहित दर्शन हुए। माता जानकी ने स्वयं उनके आँसू पोंछे और मस्तक पर बिन्दी लगाई। उसी के बाद से इस आश्रम में बिन्दी तिलक का चलन प्रारम्भ हुआ।
आज भी उस ‘बड़ी जगह’ में संत सेवा, अन्नदान, भजन-कीर्तन का वही क्रम जारी है। यह स्थान केवल एक मठ नहीं — बल्कि भक्ति की जीवंत गाथा है, जहाँ भगवान ने स्वयं अपने भक्त के लिए रात्रि में दरवाजा खटखटाया।
यह कथा हमें यह सिखाती है कि जब सेवा निष्काम हो, प्रेम सच्चा हो, और श्रद्धा अविचल हो — तो भगवान स्वयं दौड़े चले आते हैं।
भक्त की चिंता भगवान की चिंता बन जाती है।
🌿 जय श्री सीताराम! 🚩
✍ प्रेम सागर पाण्डेय
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