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मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना...

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना...

(प्रो. कैलाश देवी सिंह-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
भारत की धरती पर ऐसे भी लोग हैं जो आस्थावान मुसलमान होने के बावजूद भारतीय संस्कृति से अभिभूत हैं। उसके प्रति उनका सम्मान और अपनत्व का भाव है। उनकी दृष्टि में इतिहास, परंपराएं आदि बातें मजहब के आड़े कहां आती हैं? यहां बात अमीर खुसरो, रहीम, जायसी या रसखान जैसे प्राचीन कवियों या चिंतकों की नहीं है बल्कि वर्तमान युग के मुस्लिम मनीषियों या सामान्य जनों की है।

बेगम अख्तर: बेगम अख्तर सिर्फ भारत की ही शीर्ष गजल गायिका नहीं थी बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनका बहुत सम्मान था। आजादी के समय जब देश का बंटवारा हुआ तो उनके कुछ संबंधियों ने उन्हें पाकिस्तान जाने की सलाह दी। बेगम का जवाब था-

मियां पुरखों की कब्रें तो यहां हैं। पैदा यहां हुए हैं। इसे छोड़कर कहां जाएं? यहां इबादत पर पाबंदी है क्या? कुछ लोग शिव पर जल चढ़ाकर इबादत करते हैं तो कुछ गीता पढ़कर इबादत करते हैं और हम नमाज अदा करके करते हैं- इनमें फर्क क्या है? बेगम अख्तर आस्थावान मुसलमान थीं। रोज नमाज पढ़ती थीं और तीन बार हज कर आई थीं लेकिन दीवाली पर घर पर दिया भी जलाती थीं। अपनी शिष्याओं (जिनमें अधिकांशतः हिंदू थीं) के साथ रक्षाबंधन भी मनाती थीं और बसंत पंचमी पर बसंती रंग की साड़ी भी पहनती थीं। उनकी भतीजी शमां अख्तर लिखती हैं कि ष्बेगम साहिबा, दीवाली में घर में भी खास- खास जगहों पर, यहां तक कि तिजोरी पर भी दिए रखवाती थीं और रक्षाबंधन पर अपनी जमादारिन से भी टीका करवातीं, राखी बंधवातीं और उसे पैसे देती थीं।

ऐसे ही एक विद्वान हुए हैं- बशीर अहमद मयूख। श्री मयूख एक आस्थावान मुसलमान और 5 वक्तों के नमाजी थे (या हैं ) किन्तु भारतीय उपनिषद, पुराण और वेदों के वे गहन अध्येता थे। ऋग्वेद के हिंदी में अनेक अनुवाद हुए हैं लेकिन ऋग्वेद का एकमात्र काव्यानुवाद श्री बशीर अहमद मयूख ने ही किया है और वह भी इतनी परिष्कृत हिंदी और मोहक शैली में कि मुग्ध कर लेता है। ऋग्वेद में वर्णित प्रातः या उषाकाल का श्री मयूख द्वारा किये गये काव्यात्मक भावानुवाद का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

‘लो, उषा आई कि जैसे

आंख से आंसू गिराती ,

छोड़ पीहर चली दुल्हन

ओस से भूलोक भीगा ।

पंख फैलाकर पखेरू

उड़ चले हैं घोंसलों से

लो उगा दिन।

उर्दू के जाने-माने लेखक राही मासूम रजा घोर कम्युनिस्ट थे जो धर्म को नकरता है लेकिन अन्य मार्क्स- वादियों की तरह उनके लिए न तो राष्ट्रवाद की भावना संकीर्णता थी और न ही भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा रखना पिछड़ेपन की निशानी थी। उनके लिए उनकी जन्मभूमि (गाजीपुर) तीर्थ थी तो गंगा, मां और मोक्षदायिनी थी। यह भाव उनकी नज्म ‘वसीयत’ में देखिए-

मुझे ले जाके गाजीपुर में

गंगा की गोदी में सुला देना

वो मेरी मां है ,

मेरे बदन का जहर पी लेगी।

भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा का भाव राही मासूम रजा के उपन्यास ‘आधा गांव’ में भी परिलक्षित होता है।

किसी समय की शीर्ष अभिनेत्री नरगिस ने भी लिखा है कि मैं नियमित रूप से ध्यान करती हूं। उन्होंने लिखा है कि जब हमारी फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ डूब गई तो हम करीब-करीब दिवालिया हो चुके थे। पूरी तरह कर्ज में डूबे हुए हम मानसिक रूप से विचलित हो गए थे। तब मुझे गुरु मुक्तानंद ने ध्यान लगाने की सलाह दी जिससे मुझे अपूर्व मानसिक शांति मिली। तब से नियमित ध्यान लगा रही हूं। इससे मेरी सोच और व्यक्तित्व में अद्भुत परिवर्तन आया है।

शायर नजीर बनारसी ने भी कृष्ण को अपने आराध्य के रूप में देखा और लिखा है-

मन के आंगन में बंसी के बजैया आए।

मेरे गोकुल में मेरे कृष्ण कन्हैया आए।

जाने-माने शायर सरदार अहमद ‘अलीग’ भी तो दीवाली को रावण पर राम की विजय के उपलक्ष्य में उत्सव के रूप में देखते हैं-

दीवाली लिए आई- उजालों की बहारें ।

हर सिम्स है पुरनूर चिरागों की कतारें ।।

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नेकी की हुई जीत,

बुराई की हुई हार ।

उस जीत का यह जश्न है,

उस फतह का त्यौहार।।

भारत से पाकिस्तान गईं वहां की शीर्ष कवयित्री फहमीदा रियाज वहां भी मां यमुना और भारत की प्राचीन सभ्यता को याद करती हैं-

इतिहास की घोर गुफाओं में

शायद पाए पहचान मेरी,

था बीज में देश का प्यार घुला

परदेश में क्या-क्या बेल चढ़ी।

भारत से ही गए पाकिस्तान के सुप्रसिद्ध शायर असद मोहम्मद खां न केवल भारत बल्कि देवी विंध्याचल भवानी को भी याद करते हैं-

मैं विंध्याचल की आत्मा

मेरे माथे चंदन की बिंदिया। आदि

और उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इस पाकिस्तानी मुस्लिम शायर ने यह कविता उर्दू में नहीं बल्कि देवनागरी लिपि में लिखा है।

सिंध पाकिस्तान के प्रसिद्ध शायर इब्राहिम मुंशी भारत से पाकिस्तान नहीं गए बल्कि बंटवारे के बाद पूरा सिंध ही पाकिस्तान में चला गया। स्वाभाविक रूप से श्री मुंशी भी पाकिस्तानी हो गए। श्री इब्राहिम ने लिखा है- मजहब का तहजीब (संस्कृति )से कोई ताल्लुक नहीं। मैं मुसलमान हूं लेकिन मेरी तहजीब सिंधी है। मोहनजोदड़ो की संस्कृति (अति प्राचीन भारतीय संस्कृति) हमारी है और हिन्दू राजा दाहिर हमारे पुरखे हैं। समाज और साहित्य भरा पड़ा है ऐसी घटनाओं से। बिहार में कैमूर जिले के अनेक गांवों में मुसलमान पहले निकाह करते हैं फिर हिंदू रीति से विवाह करते हैं। यह लोग 800 साल पहले मुसलमान बना दिए गए थे जब इनके पूर्वज राजपूत सिपाही नालंदा विश्वविद्यालय जलाते समय बख्तियार खिलजी से पराजित हुए थे। उड़ीसा में कतिपय ऐसी जगहें हैं जहां मुसलमान गणेश पूजा करते हैं लेकिन पूजा में मंत्र नहीं बल्कि कुरान की आयतें पढ़ी जाती हैं।
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