मां को चिट्ठी
✍ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"समय निकाल लिख रहा हूँ
माते ! यह संदेश,
तुम रहती हो अकेली घर में
मैं रहता हूंँ परदेश।
चिट्ठी में है भरा
मन का सारा प्यार,
तुम्हारे बिना सुना लगता
है सारा संसार।
लिख रहा हूंँ खत में
सुख दुःख की बातें,
एक मित्र के संग
भेज रहा हूंँ कुछ सौगातें।
मैं बड़ा हुआ मां,
पीकर तुम्हारा दूध,
अब तू पीती रहना,
वृद्धावस्था में जूस।
तेरी पतोहू रोज रोटी
बना नहीं सकती,
तू है जो पिज्जा, बर्गर
खा नहीं सकती !
इसमें न तेरी गलती है,
और न ही मेरी गलती,
हालात नहीं किसी के बस में,
अब दुनिया ऐसे ही है चलती।
तब तू मुझ से दूर थी,
आज मैं तुझ से दूर हूँ
तब तू मजबूर थी
आज मैं मजबूर हूँ।
तू पैसे देती रही,
मेरा भविष्य संवारने के लिए,
मैं भी कमा रहा हूँ,
अपने बच्चों को पालने के लिए।
पैसे के लिए हम दोनों
कमाते हैं इस मंहगाई में,
तब जाकर घर चलाते हैं
एक सीमित कमाई में।
तुझे कभी मायूस न होने दूंगा,
यह है मेरा प्रण,
साथ रखने को लेकर
छिड़ जाता है पति पत्नी में रण।
पहले थोड़े संसाधनों में भी
कमी नहीं खलती थी,
क्योंकि पूरे घर की दुनिया
थोड़े में ही चलती थी।
तब पैसे से बढ़कर महत्त्व था
प्यार का,
अपनेपन में जीना था
निहित तत्व परिवार का।
आज पैसे से ही
आदमी का अस्तित्व है
निर्धन का भला,
कहाँ कोई व्यक्तित्व है।
पैसे की तंगी में,
कमाने को दूर होते,
ज्यादा हो जाती तो
अपनों से दूर होते।
हमारी ही नहीं
दुनिया की ये बात है,
बुढ़ापे में पाना
हमें भी यही सौगात है।
जग में अकेला ही आना
और अकेला है जाना,
समय के अनुरूप ही
अपना जीवन है बिताना ।
समय से जलपान करना
और दवाइयां भी लेना,
पिताजी का ध्यान रखना
आंगन में ही चहलकदमी करना।
तुम भी चिट्ठी लिखती रहना,
अपनी कुशल क्षेम कहती रहना।
मौलिक रचना
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