गया का स्वाद
संसार का कौई भी पुराना से पुराना या नया से नया शहर हो उसके खान-पान की कुछ न कुछ विशेषता रहती है। गया (साहेब गंज)और गयाजी(अंदर गया) कई मामलों में खास है ही स्वाद के मामले में भी अलग है।गाँव और ।पहले गयाजी के खान-पान पर विचार कर लें।
गया एक ऐतिहासिक और पौराणिक शहर है जहाँ विश्व के हर कोने से पर्यटक,तीर्थ यात्री अनिश्चित काल से आते रहे हैं।उनके आवासन,भोजन आदि की व्यस्थाओं का दायित्व भी यहाँ के निवासियों का बनता है। यह बाजारवादी व्वस्था का संपोषक तो है ही समाज की सेवा के साथ अनगिनत परिवारों का पोषण करनेवाला भी है।
इस शहर के बुजुर्ग ,पुराने लोग कहते थे ,अंग्रेज़ो ं के बाजार में आने से पहले चाय भी पेय होता है ,कोई नहीं जानता था।अंग्रेजों ने ही चाय को बाजार में उतारा और अनेक स्टाल खुलवा कर मुफ्त में लोगों को बुला बुला कर चाय पिलाता और एक पैकेट भी घर ले जाने केलिए मुफ्त में दे देता।यह प्रचार का इतना अच्छा तरीका रहा कि अब लोगो को उठते ही इसकी तलब होती है।इसकी व्यापकता का हाल ऐसा कि हर गली ,नुक्कड़ से लेकर फाइब स्टार होटलों तक में इसका राज चलता है। भले कुछ लोग इसेशहर के खानपान में भी अंतर होता है।यह अंतर वस्तुओं की उपलब्धता पर निर्भर होता है।गाँव में सुबह -सुबह भात बन कर तैयार ।ब्च्चे हों, बडे हों,यही नास्ता या भोजन ,रात में भी यही।शहर ,शहर है।कुछ लाचारी कुछ नफासत ,कुछ देखावटीपन सब मिल जुलकर स्वाद का ढाँचा बनाते हैं। जो लोग बाहर से आते है वे भी धीरे-धीरे ही सही इस हवा में रम जाते हैं। स्वाद में सामाजिक,आर्थिक, शारीरिक,अवस्था के साथ मौसम का भी प्रभाव दिखाई पड़ना स्वाभाविक है। स्वाद पर बाहरी संपर्क से प्रभावित उपलब्ध खाद्य तथा पेय का असर होता है अतिथि प्रवंचक पेय कहें पर सर्व सुलभ और सस्ता स्वागत का साधन और नहीं हो सकता।समय बिताने और संपर्क साधने में भी यह उत्तम है।
भगवान विष्णु की नगरी है, सुबह से पूजनादि कर्म सम्पन्न होते हैं इसलिए ब्रह्म मुहुर्त में जग जाना उनके लिए अनिवार्य होता है जिनकी जीविका जुड़ी है।जो आराम पसन्द है वे आठ बजे जग सकें तो कोई बात नहीं।लेकिन सज धज कर इत्र से शरीर को महका कर पान की दूकान पर खडे हो लोगों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा एक स्वभाव सा है। गया मगध का प्रमुख सांस्कृतिक शहर है,।इस मंडल में पान की खेती बड़े चाव से की जातीहै।मगध का मगही पान अपने स्वाद की शान के आगे किसी बंगला,कलकतिया को टिकने नहीं देता।भले यह भार व्यास में कम हो। यही कारण है कि इसकी धाक दिल्ली के बाजार तक जमी है।यह अलग बात है कि इसकी लागत भी सब पान से महगी है। जो शौकीन पारखी इसे पहचान लेते है वे इसे कभी छोड़ते नहीं ं।चार फाटकों के भीतर भरसक चालीस पान की पुस्तैनी दूकाने होंगी जिनके ग्राहक भी पुस्तैनी होंगे।दक्षिण दरबाजा से नादरा गंज और ऊपरडीह से चाँद चौरा तक सभी पान दुकान दार अपने ग्राहकों के पसंदीदा मसालों को भी याद रखते हैं।बस केवल बता देना है कि पान किनके लिए लगना है।जर्दा के नाम पर कभी जमाना था अहमद हुसेन का ।अब कौन पूछता है उसे तुलसी,चौसठ के आगे। यह पुराने रईसी ठाट का शहर है ।यहाँ पनबट्टा बड़ा-छोटा पीतल या चांदी का आज भी मिल जाएगा घरों में। काँधे पर पान का डलिया लिए घर -घर घूम आता है पनेरी।लोग अपनी पसंद से एक आध ढोली रख लेते। कुछ मीठा पान के शौकीन पान के साथ लौंग इलाइची पीपरमिंट तक लेना पसंद करते हैं इसमें जर्दा नहीं होता।यह मीठा पान कहलाता है।
गयाजी और साहेब गंज को मिलाकर देखें तो जहाँ कहीं चाय की दूकान दिख जाए ,पान की गुमटी भी आसपास होगी।हर मुल्ले में पान की गुमटियाँ रोजगार का लघु पूंजीय साधन हँ। पान चाय के सांग रसिक सा आनंद दायक बस्तु है।हमारे पूज्य पं श्यामदत्त मिश्रजी कहा करते थे--रहिमन मोहि न सुहाय ,चाय खवावत पान बिन। विज होटल में उनकी चाय निश्चित रहती पर चाय आने के पहले ही राजेन्द्र पान का आइर भी दे देते थे।यहाँ चय-पान मुहावरा की तरह हो गया है।
सुबह के नास्ता की बात करें तो किसी मुहल्ले में ं नास्ते की दूकान पर जाएं ,कचौड़ी जलेबी गरमा गरम खा सकते है ।लेकिन आपका मन हो कि सबेरे समोसा खा लिया जाए तब इस इच्छा का त्याग करना पड़ेगा। क्योंकि यहाँ की परम्परा में समोसा दिन के तीन बजे से मिलना शुरू होता है। शाम में कचौड़ी जलेबी नहीं। गोदाम या चौक मे दुकानदारों की बाते कुछ और हैं ।जो घर से जलपान कर नहीं निकलते उनके लिए टिकारी रोड में कई दूकाने हैं जहाँ शुद्धता पूर्वक मिठाई के साथ जलपान की व्यवस्था है।कभी ,कोतवाली के सामने ही दीपन साव की दुकान की घृतगंध से के पी रोड धमाधम होता था।तब यह एकमात्र दूकान थी जहाँ शुद्ध घी में मिठाई कचौड़ी,जलेबी,तथा इमरिती बनती थी ।बाद में उसी के एक कारीगर हरि ने अलग दूकान खोल ली।अब तो कई दूकाने हैं । पर पहले वाली बात नहीं।चौक पर महावीर मंदिर के बगल मे साठ के दशक में ही मथुरा के चौबेजी ने मिष्टान्न भंडार खोलकर महारत हासिल कर ली।फलहार वाले पकवानों के कारण चर्चा और अधिक लाभ में रहे।कद्दू ,गाजर,,सिंघाड़ा,,तिखुर आदि के हलवे के साथ मिठाई के क्या कहने।इन दूकांनों से गया के लोगों के स्वाद की पहचान होती हैं।
दिन के भोजन में चावल केसाथ दाल,सब्जियाँ, पापड़ चटनी का स्वाद मन प्रसन्न करने वाला होता है।लोग भोजन के बाद फल खाना भी अच्छा मानते हैं। ये फल मौसम के अनुसार स्वाद बदलते हैं।मौसम आम का हो तो फिर आनंद ही आनंद है।
एक समय था जब गया की पहचान थी केसरिया पेड़ा ।गया खास कर प केसरिया पेड़ा,तिलकुट और तम्बाकु के लिए प्रसिद्ध रहा है। चौक पर आज भी वह दूकान है।पेड़ा भी मिलेगा। पर केसर का पता नहीं रंग भले ही चीनी के साथ सट गया हो।
शाम में दूकानदार समोसे(सिंघाड़ा), सेव,नमकीन बुंदिया लौग लता, नास्ते के लिए तैयार रखते। शाम मे कुछ ठेले पर या खोंगचे में चाट ,वेसन, कोपल की मसालेददार जायकेदार सामग्री भी आकर्षक होती।
ये खाद्य प्रबंध पारंपरिक हैं।समय और संपर्क के साथ रुचि मे बृद्धि और परिनर्तन भी होता है। बोध गया में चीन तिब्बत आदि देशों से आने वाले पर्यटकों के संपर्क और व्यापारिक लाभ के कारण उनके खान पान की नकल भी होने लगी।चाउमिन,पिज्जा,बर्गर जैसे खाद्य रुचि में रचने वसने लगे हैं।विशेष समारोहों में भी अब इनका ही बोलबाला है बच्चे हों या बड़े सब के सब रमे हैं।
दक्षिण भारतीय इडली डोसा तो अब स्पेशल होगया है इडलीवाला चटनी सांभर के साथ घूम घूम कर बेचता चलता है जबकि एक समय था पंजाब होटल के कुछ पहले ही भारत काँफी वार नाम की दुकान थी जहाँ स्वाद बदलने कभी -कभी जाते थे। वहाँ कवि मिजाज,नेता टाइप लोग एक कप चाय का आदेश दे चार पाँच मित्र मिलकर दस ग्लास पानी चढ़ा लेते।। दो दशक पहले ही बेचारा दूकानदार शज्ञर छोड़कर चला गया।गए तो गुजराती होटल वाले परचुरे भी वह अलग कारण था।
इस शहर के तिलकुट की ख्याति देश से बाहर भी है।लेकिन इसके स्वाद का आनंद जाड़े के दिनों तक ही है। जैसे ही फाल्गुन का आगमन होता है, खोआ की लाई बनना शुरू ।बरसात में इसका महत्व भी चट जाता है और अनरसा बनने लगता है।यानि मौसम के मिजाज के साथ स्वाद में भी बदलाव होता है।यह गयाजी है।
मगही में एक कहावत है, हँसले घर बसऽ हे।यही हाल लिट्टी चोखा का है। पहले गाँव से बैलगाड़ी,पर सामान लादकर लाया जाता था । गाडीवान अपने साथ आटा सत्तू आदि लेकर आते थे और गाड़ी खानें मे लीट्टी बनाते थे। तब शहर के लोग उसे देहाती भोजन मानकर उपहास करते थे।समय बदला।अब यह सम्मानित भोजन की कोटि में है क्योंकि यह शुद्ध स्वास्थ्य केलिए अहानिकारकभी है। यही कारण है कि प्रीतिभोज में भी इसकी व्वस्था होती है।
लिट्टी तो अब बाजारवादी हो गयी है।अब हर जगह इसकी पूछ है। चाँदचौरा में एक दूकान है माखन मिष्टान्न भंडार ज हाँ लिट्टी चोखा खानें वाले शाम में जुटे रहते हैं।
बच्चों के सामने गुपचुप का नाम लेने से ही मुह में पानी आ जाता है।बचपन में मुझे भी बहुत अच्छा लगता था। इसे हम लोग फोक्चा कहते थे ।यही बंबैया पानीपुरी है।प्रीति भोजों मे देखा है बच्चे पहले इसी के काउंटर पर पहुचते है
पेय पदार्थों का अलग तमाशा है। सामान्यत:गन्ने का रस,गुड़ अथवा चीनी का शरवत अब गौण हो गया। सोडा वाटर भी नही।कोल्ड ड्रिंक का जमाना आ गया। हालाकि फलो के रस की लोक प्रियता गई नहीं है, न जाएगी ।जो अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देते हैं वे फल- रस में विश्वास रखते हैं।ंइसलिए अनेक स्थानों में फलों के रस की दूकाने मिल जाएँगी। गर्मी में ठेले पर सत्तू का घोल पीने का मजा ही कुछ और है। बड़े बड़े साहब भी इस पेय का पान कर मस्त हो जाते है।। आजकल ठेले पर मशीनी पिस्टन से पेरकर निकाले रस की बिक्री सालो भर होती है। पिंडदान करने आए यात्रियो के लिए गन्ने या फलों का रस तृप्ति का अच्छा सहयोगी सिद्ध होता है।
विष्णु नगरीय भाव जन्य रुचि तो अतिशय ग्राह्य और प्रशस्त भी है किंतु इसके विपरीत अखाद्य सेवी रुचि भी है जो म्लेच्छीय स्वाद का पोषण करती है। ऐसे लोग अपने को शाक्त कह कर बच जाने मॆं आनंदित होते हैं।इससे हिंसात्मक प्रवृति और प्रकृति का संबर्धन होता है।रामकृष्ण
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