क्या आपने कभी संस्कृत में लोरी सुनी?

संकलन अश्विनीकुमार तिवारी
राजा भोज को विक्रमादित्य का सिंहासन मिलना और फिर राजा द्वारा विधिपूर्वक उसपर बैठने के यत्न में सिंहासन की एक पुतलिका द्वारा प्रतिदिन रोके जाने का बत्तीस दिनों का सिलसिला सिंहासन बत्तीसी के रूप मे भारतीय कथा साहित्य में दर्ज है। यह भारतीय कथा साहित्य की स्वर्णिम परम्परा का द्योतक है। कम से कम कथा साहित्य की जन्मभूमि भारत ही है, इससे यह तो सिद्ध हो ही जाता है।
एक समय तक, बालकों की शिक्षा दीक्षा में पंचतंत्र और हितोपदेश के साथ ही सिंहासन बत्तीसी का कथाओं की भी असंदिग्ध भूमिका थी। बचपन मे ही हमने भी ये कथाएं खूब पढ़ीं। शिक्षा के साथ ही अपने राष्ट्रीय गौरव और महापुरूषों के प्रति श्रद्धा का बीजारोपण भी मन मे होता रहता था।
लेकिन प्रकारांत में सिंहासन बत्तीसी की बत्तीस कथाएं कहीं न कहीं भारतीय लोकमानस की स्मृतियों में सदा जीवित बने रहे किसी राजा विक्रमादित्य की ओर भी इशारा कर देती हैं। अंग्रेजी राज के पहले तक यह भारतीय नायक लोक कथाओं के कथा भंडार में श्रीवृद्धि करता रहा और विदेशी दासता के अंधकार मय युगों में भी भारतीय राज्यपरम्पराओं की बानगी प्रस्तुत करता ही रहा। तुलसी के राम तो आराध्य थे ही, ईश्वर की कोटि तक बैठा दिए गये थे, मगर विक्रमादित्य का किरदार निहायत ही लौकिक था और लोक से गहरे जुड़ा था।
ये कोई आश्चर्य की बात नही कि अंग्रेजी राज व्यवस्था ने जब प्रशासनिक अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए भारतीय इतिहास आदि का पाठ्यक्रम निर्धारित किया तो सबसे पहली चोट विक्रमादित्य के मिथकीय कहकर ही की, जबकि ऐतिहासिक युग के कम से कम तेरह प्रमुख भारतीय नरेशों ने गर्व के साथ अपने नाम के साथ विक्रमादित्य की उपाधि को धारण किया था। मूल विक्रमादित्य तो लोक मानस में कहीं न कहीं इतने गहरे धंसा रहा होगा कि इस नाम की लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास केवल अकेले राजा भोज ने ही नहीं किया था बल्कि कईयों ने किया था।
लेकिन आश्चर्य तब अधिक होता है जब आज़ादी के बाद भी इतिहासकार इसी लीक को ढोते रहे। विक्रमादित्य तब भी इतिहास और कल्पनाओं से मिटा दिए गए और केवल कुछ समानांतर ऐतिहासिक-पौराणिक गल्पों के माध्यम से बच सके। जबकि अंग्रेज अपने किंग आर्थर, किंग लीअर, ब्रूटस, और तो और बेवुल्फ जैसे अर्ध-पाशविक वृत्तियों वाले मिथकीय पात्रों तक को गर्व से पूजते रहे और इनकी पैशाचिक प्रवृत्तियों का भी बखान खूब करते नही थकते थे। इनके विपरीत भारतीय नायक न केवल आदर्श राजा, बल्कि आदर्श मानव और समाज की भी परिकल्पना प्रस्तुत करता था।
और तो और, विक्रमादित्य को आदर्श मानकर राज्य करने वाले धारा नगरी के भोज का नाम भी किंवदंती बन गया। तब भोज को ही अगला निशाना बनाया गया। हमारी कक्षा सात की इतिहास की किताब में बड़े ही ओछे ढंग से भोज की छवि को गढ़ा गया और एक पंक्ति में उसे अभारतीय घोषित करते हुए यह लिखा था
"भोज शब्द भारतीय भाषा का नही प्रतीत होता। वह अवश्य विदेशी प्रभाव में गढ़ा गया शब्द प्रतीत होता है। यह अरबी भाषा के 'जुज' से मिलता जुलता कोई नाम रहा होगा।"
(क्योंकि अरबों ने उसे 'जुज' कहकर संबोधित किया था।)
हमारे इतिहासकार अरबों के विवरण को पत्थर की लकीर मानकर अकाट्य प्रमाण की तरह प्रस्तुत करते हैं। भोज का कसूर सिर्फ इतना था कि इस्लाम के प्रादुर्भाव काल मे तेजी से फन फैलाती इस्लामी- साम्राज्यवादी आतंकवाद की लहर के आगे इस नाम के कम से कम दो व्यक्ति दीवार की तरह खड़े हुए थे और एक के बाद एक कई युद्धों में अरबों को परास्त कर चार सौ सालों के इतिहास में भारत को इस ज़हालत से मुक्त रख सके थे।
मिहिरभोज ने तो आदि वराह तक की उपाधि धारण कर ली थी क्योंकि उसने आदिवराह की तरह ही रसातल में (विधर्मियों के हाथ) जा चुकी पृथ्वी को वहां से उबारा था। अरबी लोग उससे अत्यधिक घृणा करते थे और अक्सर उसके नाम को विकृत कर अपनी खुन्नस उतारते थे। पर हमारे इतिहासकारों की नज़रों में अरब अपनी जगह दुरस्त थे, और मिहिरभोज की उपाधि केवल आलंकारिक अतिश्योक्ति मात्र थी!!
भोज का उज्ज्वल चरित्र और असन्दिग्ध विद्वता से ब्रिटिश भी इंकार नही करते थे मगर आज़ादी के बाद आये 'काले कपटनिष्ट' तो उनसे चार कदम आगे बढ़ गए। भोज और हर्ष जैसे विद्वान राजाओं की परम्परा को यह कहकर नकारते रहे कि राजाओं में अपने नाम से पुस्तकें लिखवाने की प्रवृत्ति थी।
हर्ष के बौद्ध होने के चलते उसपर तो फिर भी नरम ही रहे, पर 'आदिवराह' जैसे नामों को धारण करने वाले मिहिरभोज हों या वत्सराज के वंशज भोज परमार, दोनों को कलुषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इनका ज़िक्र भी केवल एक ही पाठ के अंतर्गत अन्य छोटे-बड़े नृपतियों के मध्य त्रिवर्गीय संघर्ष (कन्नौज को लेकर पाल-प्रतिहार-राष्ट्रकूट संघर्ष) की भूमिका को प्रमुखता से उभारते हुए एक कोने में कर दिया गया। औसत विद्यार्थी की पहुंच कभी वहां तक होती भी नही। और विद्यार्थी केवल यह संदेश लेकर उठता है कि हर्ष के साम्राज्य और गजनवी के आक्रमणों के बीच लगभग साढ़े तीन सौ सालों का भारतीय इतिहास केवल भारतीय नरेशों की आपसी उठा-पटक और संघर्षों की ही कहानी है। और इस बीच होने वाले असंख्य अरबी आक्रमण और अरबों की पराजय को पिछले दरवाजे से चुपके से पार करा दिया जाता है और भारतीय नरेशों की 'तुरंग (तुर्क) विजय' जैसी भारी भरकम उपाधियों को सिर्फ मज़ाक की तरह प्रस्तुत किया जाता है।
इतिहासकार की नज़र अरबों के साथ इन 'छोटे-मोटे' संघर्षों से कहीं दूर अफ़ग़ानिस्तान से खैबर के रास्ते धूल उड़ाते जंगली गदहे-घोड़ों के लश्करों पर आने वाले नए-नए मुसलमान बने तुर्कों पर है जो केवल लूटमार के इरादे से आये हैं और उन्हीं में एक सुबुक्तगीन का बेटा महमूद भी है जिसे माले-ग़नीमत की पवित्र इस्लामी रवायत पर चढ़कर फ़ानी दुनिया मे गाज़ी होने की चाहत और दूसरी दुनिया मे बहत्तर हूरों को पाने की ख्वाहिश है। इतिहासकारों की नज़र धूल-उड़ाते उन काफिलों पर अधिक है क्योंकि उसकी नज़र में सोमनाथ का कुफ़्र टूटना बड़ी घटना है, क्योंकि इससे बहुसंख्यक हिंदुओं की आस्था खंडित होती है।
इसलिए हमारा सेकुलर इतिहासकार चार सौ सालों के इतिहास को चार पन्नों में समेटकर जल्दी-जल्दी उपरोक्त ऐतिहासिक घटना का गवाह बनने निकल पड़ता है।
बहरहाल, मैं कथ्य से भटककर ज्यादा दूर नही जाना चाहता। इतिहास के प्रति नकारात्मक सोच रखने में कपटनिष्टों की 'काली चमड़े वाले भारतीय अंग्रेजों की नस्ल' से कहीं अधिक घातक अब एक अंग्रेज नहीं, बल्कि भारतीयों की ही कई जातियों की एक वर्ण-संकर प्रजाति कहीं आगे निकल गयी है। ये रंगे हुए नीले सियार किसी भी हद तक गिर सकते हैं क्योंकि ऊपर उठने के बजाय नीचे गिरना अधिक सहूलियत भरा होता है। और वैसे भी इनके लिए खुद को इतिहास से काट लेना सरल है।
पिछले दिनों एक रंगे सियार ने पूछा कि कभी संस्कृत में आपने लोरी भी सुनी? तो मुझे हँसी आयी। संस्कृत में मैंने पहेलियां और गणित के सूत्र से लेकर लोक-व्यवहार की कई बातें तक सुनीं, पर लोरियां नही सुनी। वैसे मैने कभी किसी रंगे सियार को गणित विषय का ज्ञाता होते भी नही सुना। खैर! वो दूसरा विषय है।
संस्कृत नाटकों में स्त्री और निम्न जाति के पुरुषों के द्वारा भी संस्कृत की जगह प्राकृत में वार्तालाप करने के प्रसंग भी हैं। पर इससे संस्कृत साहित्य की विदुषी नारियां और शूद्रक जैसे उच्चकोटि के विद्वान नाटककारों का स्पष्टीकरण नही दिया जा सकता। मैं राजा भोज की ही एक कथा के साथ अपनी बात समाप्त करता हूँ।
राजा भोज एक शक्तिशाली सम्राट के साथ ही साथ अपने समय के उद्भट विद्वान भी थे। संस्कृत के कई आचार्य तक उनका नाम श्रद्धा से लेते थे। कइयों के वे प्रश्रय दाता भी थे। उनके बारे में यह उक्ति बहुत प्रचलित थी -
अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥
[आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी ज्ञानीजन आदृत हैं।]
कई संस्कृत ग्रन्थों का प्रणयन करने के साथ ही वे आमजन की व्यथा को समझने के लिए जनता के बीच पैदल ही निकल जाया करते थे। ऐसे ही एक मौके पर वे राजधानी की सड़क पर एक नितांत वृद्ध व्यक्ति को घास का भारी गट्ठर लादे परेशानी से चलते देख उसकी मदद की इच्छा से आगे बढ़कर पूछने लगे -
"भद्र! किम भारम बाधति?"
राजा का आशय था कि क्या उसे भार की वजह से कष्ट (बाधा) हो रहा है। निश्चय ही राजा भोज उसकी मदद की भूमिका बांध रहे थे किंतु एक चूक कर गए, आत्मनेपद की क्रिया "बाधते" की जगह भूलवश "बाधति" कह गए।
वृद्ध ने भार को एक ओर को रखकर हाथ जोड़कर अपने राजा का अभिवादन कर सिर्फ इतना कहा
"भारम न बाधते राजन! इदम 'बाधती' बाधते।"
भार से उसेे उतना कष्ट नही हुआ था जितना विद्वान नरेश के मुख से अशुद्ध क्रिया 'बाधती' सुनकर कष्ट हुआ था।
भाषा के मर्मज्ञ एक विद्वान नरेश की क्या सम्मति हुई होगी? इन्हीं राजा भोज की मृत्यु पर यह श्लोक प्रचलित हुआ था -
अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते ॥
[आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है ; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी ज्ञानीजन खंडित हैं।]
नीचे माता मदालसा की लोरी दी गयी है। ज़ाहिर है, उच्चारण की शुद्धता पर अत्यधिक ध्यान रखने वाले संस्कृत के विद्वान देव भाषा की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के ज़्यादा ही जोश में इसे आमजन से दूर करते गए। वैसे भी भीम को भिम कहने वाले और हिंदी में दूसरी जातियों को कोसते हुए भी चार शब्द शुद्ध न लिख पाने वालों ने इसे नही पढा होगा क्योंकि उनके कान में सीसा जो पड़ा था।
✍🏻जय मालव
एक माता थी मदालसा जिन्होंने लोरी और पालने में ही अपने बालक को ब्रह्मज्ञान करा दिया और अज्ञान रूपी दुःख से छुटकारा दिला दिया ।
काश मदालसा माँ जैसी माँ सबको मिले ।
मदालसा का अपने पुत्र को ब्रह्मज्ञान का उपदेश :-
शुद्धो sसिं रे तात न तेsस्ति नाम
कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति
नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा
शब्दोsयमासाद्य महीश सूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-
sगुणाश्च भौता: सकलेन्द्रियेषु ॥
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
भूतानि भूतै: परि दुर्बलानि
वृद्धिम समायान्ति यथेह पुंस: ।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य
न तेsस्ति वृद्धिर्न च तेsस्ति हानि: ॥
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।
त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेsस्मिं-
स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा: ॥
शुभाशुभै: कर्मभिर्दहमेत-
न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध: ॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है) ।
तातेति किंचित् तनयेति किंचि-
दम्बेती किंचिद्दवितेति किंचित्
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित्
त्वं भूतसंग बहु मानयेथा: ॥
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई ‘यह मेरा है’ कहकर अपनाया जाता है और कोई ‘मेरा नहीं है’ इस भाव से पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये ।
दु:खानि दु:खापगमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढ़चेता: ।
तान्येव दु:खानि पुन: सुखानि
जानाति विद्वानविमूढ़चेता: ॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म-
मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम वसाया: ।
कुचादि पीनं पिशितं पनं तत्
स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥
स्त्रियों की हँसी क्या है, हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष जिस पर अनुराग करता है, वह युवती स्त्री क्या नरक की जीती जागती मूर्ति नहीं है?
यानं क्षितौ यानगतश्च देहो
देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: ।
ममत्वमुर्व्यां न तथा यथा स्वे
देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।
धन्योs सि रे यो वसुधामशत्रु-
रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगों
धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
धरामरान पर्वसु तर्पयेथा:
समीहितम बंधुषु पूरयेथा: ।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा
मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
सदा मुरारिम हृदि चिन्तयेथा-
स्तद्धयानतोs न्त:षडरीञ्जयेथा: ॥
मायां प्रबोधेन निवारयेथा
ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा
यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:।
परापवादश्रवणाद्विभीथा
विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥
बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा श्रीविष्णुभगवान का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना ।
मुझे पता यह मेरी पोस्ट पूरी नहीं पढ़ी जाएगी क्योंकि न इसमें मोदी है , न केजरी है , न सनी लियोनी है , न कपिल शर्मा है और न ही चटपटी खबर ।
क्योंकि मन को आदत पड़ गयी है इन सबकी । मन बार बार गलत दिशा में ही जायेगा क्योंकि अनंत जन्मों की practise जो है ।
लेकिन जिसको स्वयं का उद्धार करना होगा, वह यह पोस्ट पूरी पढ़ेगा ।
धन्यवाद !
✍🏻श्वेताभ पाठक
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