“सनातन महाकुंभ” या निजी महोत्सव? – व्यवस्था की विफलता और जनता के साथ विश्वासघात
✍️ डॉ राकेश दत्त मिश्र
जब किसी आयोजन का नाम “सनातन महाकुंभ” जैसा विशाल और पवित्र रखा जाए, तो सहज ही जनमानस में यह अपेक्षा जागृत होती है कि यह आयोजन धर्म, संस्कृति, आध्यात्म और समाजोत्थान के उद्देश्य से किया गया होगा। परन्तु हाल ही में पटना में जिस प्रकार “सनातन महाकुंभ” के नाम पर एक अव्यवस्थित, अपारदर्शी और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से भरा तमाशा प्रस्तुत किया गया, उसने न केवल सनातन धर्म की मूल भावना को आहत किया, बल्कि हजारों श्रद्धालुओं और आम जनता की भावनाओं के साथ भी क्रूर मज़ाक किया।
सनातन का मुखौटा, राजनीति की असलियत
कार्यक्रम की योजना और प्रचार जिस स्तर पर किया गया, उससे यह प्रतीत हुआ कि यह सनातन संस्कृति और धर्म की एक विराट प्रस्तुति होगी – जहाँ ऋषि परंपरा, धार्मिक विमर्श, यज्ञ-हवन, वेदाचार्य, सनातन संस्कृति के मूल्य और सामाजिक चेतना का विस्तार होगा। लेकिन वास्तविकता इसके ठीक विपरीत रही।
पूरे आयोजन का केंद्रबिंदु धर्म नहीं, बल्कि एक विशिष्ट राजनैतिक दल और उसमें जुड़े एक नेता व उनके पुत्र को आगे लाने का मंच रहा। मंच पर धर्म के नाम पर सत्ता की होड़ दिखी, भक्ति के नाम पर चेहरों की ब्रांडिंग की गई, और “सनातन” केवल एक ढाल बनकर रह गया। आयोजकों की प्राथमिकता श्रद्धालु नहीं, बल्कि कैमरे, मंच, सोशल मीडिया लाइमलाइट और राजनीतिक गुटबंदी रही।
जनता बेहाल, नेता खुशहाल
पटना की चिलचिलाती गर्मी में, जहाँ आम नागरिक पसीने से तर-बतर, प्यास से बेहाल और व्यवस्था की उम्मीद लिए सभा में शामिल होने पहुंचे, वहाँ उन्हें मिला अव्यवस्था, अभद्रता और तिरस्कार।
- न तो पीने का पानी उपलब्ध था,
- न शौचालयों की समुचित व्यवस्था,
- न चिकित्सा की सुविधा,और न ही कोई प्रभावी मार्गदर्शन।
जनता घंटों तक धूप में बैठी रही, और वहीं मंच पर एसी लगे केबिनों में नेता-मंत्रियों की मौज चलती रही। यह दृश्य दर्शाता है कि “सेवा” के नाम पर “प्रचार” और “साधना” के नाम पर “स्वार्थ” कितना हावी हो गया है।
व्यवस्थापक: आयोजक या अहंकारी अधिपति?
कार्यक्रम के आयोजक या व्यवस्थापक जिस प्रकार स्वयं को “ईश्वरीय दूत” या “भगवान” समझकर प्रस्तुत करते दिखे, वह आचरण बेहद चिंताजनक और निंदनीय है।
सनातन धर्म की मूल भावना "विनम्रता, सेवा, समर्पण और समदृष्टि" है, जबकि इस आयोजन में "अहंकार, आत्मप्रचार और तानाशाही व्यवहार" स्पष्ट रूप से दिखा। किसी भी प्रकार की आलोचना को “धर्मविरोधी” कहकर दबाने की कोशिश की गई, जो लोकतांत्रिक मूल्यों के भी विरुद्ध है।
प्रश्न जो खड़े होते हैं:
- क्या “सनातन महाकुंभ” वास्तव में सनातन मूल्यों का प्रतिनिधित्व कर रहा था?
- क्या जनता को गुमराह कर एक निजी राजनीतिक मंच को धर्म का जामा पहनाया गया?
- क्या आयोजकों को इस बात की कोई जवाबदेही नहीं कि हजारों लोग गर्मी में बेहाल हो गए?
- क्या ईश्वर और धर्म केवल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की सीढ़ियाँ बन गए हैं?
पटना में हुआ यह तथाकथित “सनातन महाकुंभ” एक गंभीर चेतावनी है – कि धर्म की आड़ में राजनीति का खेल अब और भी नंगा और निर्मम होता जा रहा है। धर्म, समाज और जनता की भावनाओं को मोहरे बनाकर व्यक्तिगत स्वार्थ की रोटियाँ सेंकी जा रही हैं।
यह आयोजन एक अवसर था – सनातन के वास्तविक मूल्यों को जनमानस तक पहुंचाने का। पर वह अवसर एक बार फिर खो गया, और बची रह गई जनता की आहत आस्था, व्यवस्थाओं की विफलता और नेताओं की ठहाकों से गूंजता हुआ मंच।
आगामी समय में आम जन को सजग होने की आवश्यकता है – धर्म के नाम पर हो रहे तमाशों को पहचानने की, और ऐसे आयोजनों से केवल आस्था नहीं, जवाबदेही भी मांगने की।
सनातन धर्म की रक्षा केवल मंत्रोच्चार से नहीं, बल्कि नैतिकता, समर्पण और सत्य के साथ ही संभव है। और यह जिम्मेदारी हम सबकी है।
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