पचपन मे भी वो बचपन, अक्सर दिख जाता है,
राह मे पेड पर लटका, आम जब दिख जाता है।भरी दोपहर और हो लथपथ, तन जब पसीने से,
मजबूरी मे भी मन अपना, पानी मे दिख जाता है।
कभी कुछ मजबूरियाँ होती, रातें छत पर कटती,
चाँद तारों की अठखेलियों, नजारा दिख जाता है।
करो मोबाइल बन्द, और टीवी को भी छोडो तो,
घर मे दादा दादी, माँ बाप का चेहरा दिख जाता है।
अ कीर्ति वर्द्धन
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