जाने माने इतिहासकार – कार्यविधि, दिशा और उनके छल

जाने माने इतिहासकार – कार्यविधि, दिशा और उनके छल 

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी

अपने उपनिवेश भारत के अतीत की ब्रिटिश शासकों के नियुक्त लेखकों ने कैसी व्याख्या की है इसे एडवर्ड थॉमसन के इस उल्लेख से समझें कि – “हमारे इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को एक विशेष दृष्टिकोण प्रदान किया है। उस दृष्टिकोण को बदलने के लिये जो साहसपूर्ण और सशक्त समीक्षाशक्ति अपेक्षित है, वह भारतीय इतिहासकार अभी बहुत समय तक नहीं दे सकेंगे” (आर्यों का आदि निवास मध्य हिमालय, भजन सिंह में संकलित)। पुस्तक “भारतीय इतिहास का विकृतिकरण, लेखक - रघुनंदन प्रसाद शर्मा” से उदाहरण उल्लेखनीय हैं -  अलबरूनी के यात्रावृतांत में गुप्त संवत के उल्लेख वाले अंशों का फ्लीट ने बार बार अनुवाद करवाया, उसे वही अनुवाद चाहिये था जो उसके उद्देश्य की पूर्ति कर सके। इसी तरह पुस्तक “भारतीय इतिहास पर दासता की कालिमा लेखक -  कोटावेंकटचलम” लिखते हैं  - सुधाकर द्विवेदी ने आर्यभट्ट के ग्रंथ आर्यभट्टम के पद में छापते समय टी एस नारायणस्वामि के मना करने पर भी पाठ में परिवर्तन कर दिया जो कि अवांछित था। कोटावेंकटचलम ऐसा ही एक उल्लेख अपनी कृति “दि प्लांट इन इंडियन क्रोनोलॉजी” में जानकारी प्रदान करते हैं कि पार्जिटर तो स्वरचित एक पद पुराणों में घुसाना चाहते थे जबकि वे इसके अधिकारी नहीं थे। यह सब स्पष्टत: सामने आ जाने के बाद, क्या हमें ठहर कर यह नहीं सोचना चाहिये कि भारतीय इतिहास को मिथक सिद्ध करने के लिये सुनियोजित षडयंत्र के तहत अनवरत प्रयास होते रहे हैं? 

आज भी कमोबेश वही स्थिति है, वामपंथी नैरेटिव से आगे देखने-सोचने की  समझ को हमने खो दिया है। सौ बार बोले गये झूठ को सच मान लिया गया है। हमारी पाठ्यपुस्तकों का सच क्या है इसे समझा या सकता है यदि  विवेचना करें कि हमने अपने इतिहास को कितना हल्के में लिया है, रबड की तरह लचीला बना दिया है। अतीत के जिन सत्यों को ढका छिपाया गया है उसे सामने लाने के किसी भी यत्न पर लाल सलाम-लाल सलाम की कैसी चीख-पुकार मचती है, इसका उदाहरण इसी धारा की वेबसाईट “दि वायर” में दिनांक 2/05/2018 को प्रकाशित जावेद अनीस के आलेख “इतिहास को अपने अनुरूप गढ़ने और ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की कोशिशें तेज़ हुई हैं” से समझा जा सकता है। जावेद का आलेख उज्जैन में आयोजित हुए अंतरराष्ट्रीय विराट गुरुकुल सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के भाषणों पर आपत्ति दर्ज कराता है। आपत्तियों के विंदु हैं कि  अ) शिक्षा को और सार्थक बनाये जाने के प्रयास किए जा रहे हैं, गुरुकुलों एवं आधुनिक शिक्षा के बीच समन्वय करने के प्रयास किए जायेंगे। ब) सरकार 11वीं और 12वीं कक्षा के छात्रों के लिए ‘भारत बोध’ पर एक विषय शुरू करने की योजना बना रही है जिसका मक़सद छात्रों को प्राचीन भारत के एस्ट्रोनॉमी, विज्ञान और एरोनॉटिक्स आदि में योगदान के बारे में बताना है। इन विन्दुओं के विरोध में लाल झंडे क्यों गाडे जाने चाहिये इसे “दि वायर” के इसी आलेख में आगे स्पष्ट किया है कि  “इतिहास को अपने अनुरूप गढ़ने और ऐतिहासिक तथ्यों में फेरबदल की कोशिशें बहुत तेज़ हो गई है”। जावेद अनीस बहुत लाउड भाषा में लिखते हैं कि यह बहुत साफ़-तौर पर नज़र आ रहा है कि “सरकार की दिलचस्पी शिक्षा का स्तर सुधारने के बजाए शिक्षण संस्थानों में अपने हिंदुत्व के एजेंडे को लागू करना है।” क्या भारत बोध पर कोई भी विमर्श हिंदुत्व के एजेंडे की तरह ही देखा जायेगा? दि वायर अथवा जावेद इस बात का जिक्र भी क्यों करना चाहेंगे कि किस विचारधारा को भाजपा के सत्ता में आने से पूर्व शिक्षा व्यवस्था में अपने एजेंडे घुसेड देने का श्रेय जाता है? वो कौन सी विचारधारा है जो डाल्टन के एटम से तो सहमत है लेकिन कणाद के अणू से नहीं? वो कौन सी विचारधारा है जिसने आपत्ति उठाई कि पाईथागोरस की थ्योरम तो पढाई जाये लेकिन बोधायन का ठीक वही प्रमेय भी पढाया जाना भगवा एजेंडा है? यह तो एक उदाहरण भर है, कथित प्रगतिशीलता की साजिश बहुत गहरी और पुरानी है।   

विचारधारा ने इतिहास का किस तरह कूडा कर दिया है, इसकी परत दर परत खोलती है अरुण शौरी की वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक “जाने माने इतिहासकार – कार्यविधि, दिशा और उनके छल”। आप किसी भी धारा-विचारधारा के हों किंतु इतिहास को जानने समझने और लिखने से पहले इस पुस्तक को एक बार अवश्य पढा जाना चाहिये। भारतीय इतिहास की अब तक लिखी अधिकतम पुस्तकें या तो अंग्रेजों के दृष्टिकोण हैं अथवा वामपंथियों के। अंग्रेजों ने अपने उपनिवेश पर जब लिखा तो इस बात का ध्यान रखा कि ब्रिटिश श्रेठता का भाव बचा रह सके। वामपंथी इससे दो कदम आगे बढे और उन्होंने अतीत का विश्लेषण मार्क्स-लेनिन-माओ वाली अपनी थाती के इर्दगिर्द रह कर ही किया और इससे इतर जो कुछ भी देखा और पाया गया उसे फेंक-फांक दिया गया। अरुण शौरी की इस किताब और उनके निष्कर्षों को खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि एक एक नामचीन इतिहासकार का नाम ले कर उनके कार्यों, उनके लेखन की दिशा और छलों का सबूतो, संदर्भों और दस्तावेजों सहित खुलासा किया गया है। पुस्तक पढ कर सिहरन भर गयी चूंकि यह स-प्रमाण सिद्ध किया गया है कि किस तरह कथित वामपंथी इतिहासकारों ने मनगढंत कहानियाँ रची और उन्हें इतिहास कह कर आगे कर दिया। किस तरह प्रकाशन के वामपंथी अड्डों और मीडिया के लाल खेमों का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया। इतिहास लेखन के नाम पर किस तरह बडे बडे नामचीन इतिहासकारों ने इस तुर्रे के साथ कि हम तो कोई तनख्वाह नहीं लेते, वे रिसर्च की आड में सरकारी खजाने में बडी सेंध लगाते रहे यहाँ तक कि आज भी अधिकांश के प्रोजेक्ट अधूरे हैं या उन्हें दी गयी समयावधि से कई गुना अधिक समय हो जाने के बाद भी पूरा कर हस्तगत नहीं किये गये। यह एक निश्चित घोटाले की ओर इशारा है और इस पर सरकार को कोई जांच बिठानी चाहिये। बौद्धिक घोटालों का उजागर होना इस दृष्टि से भी आवश्यक है कि नयी पीढी कतिपय स्थापित प्रतिमानों के लिखे को ही पत्थर की लकीर न मान बैठे।

पश्चिम बंगाल में वाम शासन समय में पाठ्यपुस्तकों में किस तरह की छेडछाड की गयी तथा कैसे पूर्वाग्रहपूर्ण संशोधन जोडे गये वह आश्चर्य में डालते हैं। ध्यान रहे कि जब ये बदलाव किये जा रहे थे देश में कहीं भी शिक्षा के वामपंथीकरण अथवा लालकरण जैसे शोर-शराबे खडे नहीं हुए। पाठ्यक्रम में 28 अप्रैल 1989 के एक सर्कुलर से बदले अथवा हटा दिये गये कतिपय उदाहरण देखें कि इस तरह के अनेक अंश हटा दिये गये कि – “जो कुछ तर्कसंगत, दार्शनिक, भौतिकवादी मुजत्तिला था वह गायब हो गया। एक तरफ कुरान और हदीस पर आधारित रूढीवादी सोच.....”, “सुल्तान मेहमूद ने व्यापक पैमाने पर हत्याओं, लूट, बरबादी और धर्मपरिवर्तन के लिये बल का प्रयोग किया” आदि। शौरी ऐसे सैंकडों अंशों को कटाये जाने के पीछे का मकसद लिखते हैं कि इस तरह स्थापित किया का सकता था कि “कोई धर्मपरिवर्तन नहीं कराये गये, कोई हत्या नहीं कराई गयी, कोई मंदिर नहीं ढाया गया। बस इतना ही था कि हिन्दु धर्म ने एक शोषक और जातिवादी समाज को जन्म दिया था। इस्लाम एक समतावादी मजहब था इसलिये उत्पीडित हिंदुओं ने इस्लाम मजहब को अपना लिया”। हर शासन समय का अपना पक्ष और विपक्ष है उसे ठीक उसी तरह सामने रखा क्यों नहीं जाता?  वामपंथी ब्रेनवाश मेकेनिज्म को समझने के लिये यह भी जाने कि कक्षा पाँचवी की पाठ्यपुस्तक में जोडा गया “रूस, चीन, वियतनाम, क्यूबा और दूसरे पूर्वी यूरोपीय देशों में किसान और मजदूर हत्ता हथियाने के बाद देश पर शासन कर रहे हैं जबकि अमरीका, इंग्लैण्ड, फ्रांस और जर्मनी में मिलों के मालिक देश पर राज्य कर रहे हैं”। ध्यान रहे कि अब जो भी प्रश्न उठाये कि यह शिक्षा का ऐसा भयावह लालकरण क्यों, तो तत्काल ही उसका मुँह दबाने के लिये इंकलाबी लाल झंडे लहराने लगेंगे।   

अरुण शौरी की पुस्तक यह सिद्ध करती है कि भारतीय इतिहास वस्तुत: आज भी अनकहा, अधूरा और पूर्वाग्रहपूर्ण दस्तावेजीकरण है। यदि जाने-माने इतिहासकारों के लिखे को ताला लगा कर नये सिरे से कार्यारम्भ किया जाये तो ही कुछ बेहतर और सच के करीब पहुँचा-पाया जा सकता है। इस पुस्तक को पढते हुए अरुण शौरी पर इतिहास लेखन को दक्षिणपंथी दृष्टि से देखने के भी आरोप लग सकते हैं। इस बात को समझने की आवश्यकता है कि शौरी ने बहुत हिम्मत के साथ स्थापित मठों-मठाधीशों कर करारा प्रहार किया है। इस पुस्तक को समाप्त करने तक तथा उनके द्वारा प्रस्तुत संदर्भों, तर्कों का निजी तौर पर भी पडताल करने के बाद यह कहना चाहता हूँ कि भारतीय इतिहास को सही सोच, सही दृष्टिकोण, विचारधारा से अवमुक्ति एवं पुनर्लेखन की आवश्यकता है।......परंतु ऐसा हो सकेगा इसमें संदेह है। 
- ✍🏻राजीव रंजन प्रसाद, 
सम्पादक, साहित्य शिल्पी ई पत्रिका
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1 टिप्पणियाँ

  1. इस तरह के छल पूर्वक इतिहास लेखन ने युवाओं के मन में देश के प्रति जो असहिष्णुता का भाव भरा है बहुत ही निंदनीय है। यदि इस क्षेत्र में तुरंत सुधार नहीं किया गया तो ऐसा ना हो जाए कि देश का युवा देश के प्रति, देश के वैभव के प्रति असहिष्णु हो जाए।
    सामान्य था यह देखा भी जाता है युवाओं के आपसी वार्तालाप में कि हम थे क्या यदि विदेशी ना आते ,तो​ शायद हम मध्य काल के दौर में जी रहे होते।

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