आतिशबाजी भारत की या चीन की? या फिर इंग्लिस्तान की?
[हमारी शिक्षा और व्यवस्था]
दीपावली के निकट आते ही प्रतिवर्ष भारत में जान-बूझ कर वैचारिक जहर फैलाया जाता है। पटाखे और उनसे होने वाले प्रदूषण जैसे विषय प्रत्यक्ष में होते हैं परंतु अधिकांश बहस साम्प्रदायिक रंग ले लेती है। दु:खद है कि वैचारिक उन्माद और भ्रम फैलाने में अग्रणी भूमिका कथित प्रगतिशीलों द्वारा निर्वहित की जाती है। इतिहास की आड ले कर एक रटा-रटाया तर्क है कि पटाखे क्यों, जबकि भारत में गोला-बारूद को ले कर सबसे पहले पहुँचने वाले मुगल थे। खाका खीचा जाता है कि वर्ष 1526 में जब बाबर ने दिल्ली के सुल्तान पर हमला किया तो उसकी बारूदी तोपें की आवाज़ सुन कर भारतीय सैनिकों के छक्के छूट गए। यदि मंदिरों और शहरों में पटाख़़े फोड़ने की परम्परा रही होती तो शायद ये वीर सिपाही तेज़ आवाज़ से इतना न डरते। इसी तर्क पर आधारित एक अवधारणा है कि पटाखे और आतिशबाज़ी की परम्परा भारत में मुग़लों के शासन स्थापित होने के बाद आरम्भ हुई थी। इतिहास की पुस्तकें छोडिये, कविता का दामन थामते हैं। कबीर दास लिखते हैं – "या तन की बारूद बनी है, सत्तनाम की तोप। मारा गोला भरमगढ टूटा, जीत लिया जम लोक"। यह दोहा फिर से पढिये इसमे तोप, गोला, बारूद वगैरह सब का उल्लेख है। संत कबीर दास का समय 1398 से 1494 ई. के मध्य माना जाता है। अब दो ही बातें हो सकती हैं या तो कबीर भविष्य देख सकते थे इसलिये उनकी कविता में अनेक बार बारूद शब्द आया है अथवा यह कि गोला-बारूद और आतिशबाजी का मुगलों से जुडा दावा झूठा है। अलबत्ता यह अवश्य हुआ कि वर्ष 1667 में औरंगजेब ने फरमान जारी करते हुए आतिशबाजी पर रोक लगा दी थी।
एक अन्य मान्यता है कि आतिशबाजी 1400 ई. के आसपस चीन से भारत आयी। इस कथन के अन्वेषण से पूर्व बारूद अथवा किसी भी अन्य प्रकार के अग्निचूर्ण के आविष्कार को ले कर चीन के इतिहास की ओर एक विहंगम दृष्टि डालनी आवश्यक है। वर्ष 1948 में हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. टी एल डेविस और प्रो. जेम्स आर वेयर के एक आलेख में विवरण मिलता है कि छठवी सदी में, चीन में यूपेह और हूँनान प्रेत बाधा मिटाने के उद्देश्य से आग में बांस जला कर तेज ध्वनि उत्पन्न की जाती थी। 603 से 617 ई में स्यू वंश के शासक यांगति द्वारा कतिपय अ-स्पष्ट साधनों से आतिशबाजी का उल्लेख है। ज्ञात होता है कि 938 ई. में यो-ई-फैंग ने शुंग राजाओं के लिये अग्निचूर्ण युक्त वाण बनाये। वर्ष 1044 ई. का एक उद्धरण है जिसके अनुसार चीन में गंधक, शोरा, कागज, कोयला, तुंग-तैल अदि पदार्थ मिला कर अग्निचूर्ण का निर्माण किया जाता था। कोल्म्बिया विश्वविध्यालय के प्रो. एल. कैरिंगटन गुड्रिच ने अपनी पुस्तक शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द चाईनीज पीपल में उल्लेख किया है कि शुंग राजवंश (930 से 1275 ई.) के शासनकाल में, युद्धों में बारूद/अग्निचूर्ण का प्रयोग होता था। तेरहवीं और चौदहवीं शती में मंगोलों ने भी अग्निचूर्ण का प्रयोग किया था। सबसे रुचिकर जानकारी है कि 1221 ई. में किनतातारो ने चीन के एक नगर पर तीह-ह्यो-पाओ (तुम्बी के आकार का दो इंच मोटे लोहे का बना एक गोला था, जिसमे बारूद भरी हुई थी) से आक्रमण किया। क्या इस समय तक भारत के उत्सव ध्वनि-धमाका विहीन थे? क्या इस समय तक भी भारतीय युद्धकला में अग्निचूर्ण अथवा आग्नेय पदार्थों के प्रयोग आरम्भ नहीं हुए थे?
भारतीय संदर्भों पर चर्चा हो तो हमारे पूर्वाग्रह कैसे उछल-उछल कर सामने आते हैं इस कडी में बीबीसी हिंदी मे प्रकाशित (16/10/2017) एक आलेख “क्या भारत में मुगल पटाखे ले कर आये थे” अवश्य पठनीय है। आलेख के अनुसार - भारत के ऋगवेद में तो दुर्भाग्य लाने वाली निरृति को देवी माना गया है और दिकपाल (दिशाओं के 9 स्वामियों में से एक) का दर्जा दिया गया है। उससे प्रार्थना की जाती है कि हे देवी, अब जाओ, पलट कर मत आना, यह कहीं नहीं कहा गया कि उसे पटाख़ों की आवाज़ से डरा धमका कर भगाया जाए। इतना ज़रूर है कि भारत प्राचीन काल से ही विशेष रोशनी और आवाज़ के साथ फटने वाले यंत्रों से परिचित था। दो हज़ार से भी ज़्यादा साल पहले भारत के मिथकों में इस तरह के यंत्रों का वर्णन है”। आलेख की भाषा और नकार पर ध्यान दीजिये। भारत ध्वनि उत्पन्न करने वाले यंत्रों से परिचित भी था और वे मिथक भी थे? यदि ईसामसीह से जन्म से पहले से आपके पास ध्वनि उत्पन्न करने, लपटे पैदा करने और विस्फोट करने का ज्ञान है तो फिर चीन से आरम्भ वाली अवधारणा कहाँ से उत्पन्न हुई? ध्यान रहे कि प्राचीन शास्त्रों के अग्निवाणों और विविध आग्नेयास्त्रों के उल्लेखों को आप मिथक कह सकते हैं लेकिन कौटिल्य से आँख बचा कर निकला नहीं जा सकता। बीबीसी के इसी आलेख में आगे लिखा गया है कि ईसा पूर्व काल में रचे गए कौटिल्य के अर्थशास्त्र में एक ऐसे चूर्ण का विवरण है जो तेज़ी से जलता था, तेज़ लपटें पैदा करता था और यदि इसे एक नालिका में ठूंस दिया जाए तो पटाख़ा बन जाता था। मेरा प्रश्न है कि क्या बारहवी सदी से पूर्व चीन में पटाखा अथवा ध्वनि उत्पन्न करने वाले यंत्रों को इतने स्पष्ट विवरण मिलते हैं?
शुक्रनीति एक प्रसिद्ध नीतिग्रन्थ है, कतिपय जानकार इसका रचनाकार शुक्रचार्य को मानते हैं। वस्तुत: इस ग्रंथ, उसके रचनाकार और उनके काल के के विषय में बहुत जानकारी नहीं मिलती अत: यदि महाभारत कालीन और उससे भी पुरातन होने के दावे को नकार भी दिया जाये तो अपनी विषयवस्तु और शैली के आधार पर यह कौटिल्य के समकालीन और निकट की रचना प्रतीत होता है। कुछ विद्वान शुक्रनीति को ईसापूर्व नहीं मानते तथापि सभी के विवरणों के सबसे आखिरी छोर अर्थात छठी से आठवी सदी भी मान लिया जाये तो भी यह ग्रंथ, चीन के “प्रथम हम” के दावे को झुठलाता प्रतीत होता है। शुक्रनीति का यह श्लोक देखें – “सीसस्य लघुनालार्थे ह्यन्यधातुभवोअपि वा। लोहसारमयं वापि नालास्त्रं त्वन्यधातुजम। नित्यसंमार्जनस्वच्छमस्त्रपातिभिरावृतम। अंगरस्यैव गंधस्य सुवर्चिलवनस्य च। शिलाया हरितालस्य तथा सीसमलस्य च। हिंगुलस्य तथा कांतरजस: कर्परस्य च”। बहुत स्पष्टता से यह नालिक (बंदूख जैसा कोई यंत्र) और बृहन्नालिक (तोप जैसा कोई यंत्र) जैसे यंत्रों का उल्लेख करता है। शास्त्र में अग्निचूर्ण बनाने की भी विधि प्रदान की गयी है जिसके अनुसार इसके लिये अंगार (कोयला), गंधक, सुवर्चि लवण, मन:शिला, हरताल, सीस-किट्ट, हिंगुल, कान्तलोह की रज, खपरिया, जतु (लाख), नील्य, सरल-निर्यास (रोजिन) - इन सब द्रव्यों की बराबर अथवा न्यूनाधिक उचित मात्रा उपयोग में ली जाती थी। ग्रंथ में अग्निसंयोग द्वारा अग्निचूर्ण से निर्मित गोलों को फेंके जाने के विषय में भी जानकारी प्रदान करता है।
स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की कृति “प्राचीन भारत में रसायन का विकास” प्राचीन और मध्यकालीन भारत में अग्निचूर्ण के निर्माण व इतिहास का विवरण प्रस्तुत करती है। ग्रंथ के अनुसार तंजौर के पुस्तकालय में आकाशभैरवकल्प (सम्भवत: विजयनगर 1336-1646 ई. के इतिहास से संबंधित ग्रंथ होना चाहिये।) नामक पुस्तक है जिसमें बंदूखों और अग्निक्रीडाओं का उल्लेख है। इस पुस्तक में वाण वृक्षों का निर्देश है जो बाँस के बने पिञर होत्ते थे, जिनसे अग्निवाण अंतरिक्ष में छोडे जाते थे। इन पिंज्नरों से ऐसी चिंगारियाँ निकलती थी कि वे चामर के तुल्य मालूम होती थीं। इन वाणों के छूटने पर अंत मे एक विशेष ध्वनि भी निकलती थी (तत: पश्येद्यारुयंत्रविशेषान स्यंदनाकृतीन। दिव्याभ्रांत्या कपयत: केनचित्तेजसा निशि। उच्चावचान वाणवृक्षान तत: पश्येज्जनेश्वर:। स्फुलिंगान चामराकारान तिर्यगुदगिरतो बहून। तत: प्र्लयकालोद्यद्घनग्र्जित्भीषणम। श्रृणुयाद बाणनिनदं विनोदावधिसूचकम। एवं प्र्तिदिनं राजा विनोदान पंचविंशतिम)। विजयनगर के दरबार में देवराय द्वित्रीय के समय आतिशबाजी किये जाने का जिक्र राजदूत अब्दुर्रज्जाक (1443 ई.) द्वारा किया गया है। कश्मीर में 1446 ई. में अग्निचूर्ण वाले आग्नेय शस्त्रों के प्रयोग का उल्लेख प्राप्त होता है।
वरथीमा की यात्राओं का एक विवरण ट्रवेल्स, एर्गोनांट प्रेस, लंदन, 1928 में प्रकाशित हुआ है। उनकी ये यात्रायें भरत, मलक्का और सुमात्रा देश की हैं। विवरण में 1443 ई. की विजयनगर आतिशबाजी का उल्लेख है। अपने विवरण में उन्होंने लिखा है कि विजयनगर के हाथियों को अतिशबाजी से बडा डर लगाता था। एक अन्य यात्री बरबोसा ने अपनी सन 1518 ई. की एक यात्रा में गुजरात के एक विवाहोत्सव का उल्लेख किया है, जिसमें अग्निवाण छुडाये गये थे। इसी कडी में उडीसा के गजपति शासक प्रतापरुद्र देव (1497-1539 ई.) की एक पुस्तक कौतुकचिंतामणि है, जिसमें अग्नि-क्रीडाओं का उल्लेख किया गया है। उन्होंने अनेक प्रकार के वाण जैसे कल्पवृक्ष बाण, चामर बाण, चंद्रज्योतु, चम्पा बाण, पुष्पवर्ति, छुछुंदरी रस बाण, तीक्ष्ण नाल और पुष्प बाण आदि का विवरण प्रदान किया है। कौतुकचिंतामणि के अनुसार अग्निचूर्ण निर्माण के लिये प्रयोग में आने आली सामग्री हैं गंधक, यवक्षार (शोरा), अंगार (कोयला), तीक्ष्ण लोह चूर्ण (इस्पात चूर्ण), लोह चूर्ण, मरकत सी चविवाला जांगल नामक ताम्र से उत्पन्न द्रव (ताम्रोद्भवं जांगला ख्यं द्रवं मरकतच्छवि), तालक (पीली हरताल), यवान्या गैरिक, खदिर की लकडी (खादिरं दारु), नालक (बांस की पोली डंडी), आषु पषाण (चुम्बक), चिन्नुकात्रय, एरंडबीज मज्जा, सूत या पारा, अन्नपिष्ट (आंटे की पिष्टि), वंषनाल, नाग (सीसा), अर्कागार (मदार की लकडी का कोयला), गोमूत्र, हिंगुल और हरितालक। इस विवरण में दिये गये अनेक अवयवों को अब ठीक से पहचानना कठिन है तथापि इतिहास के जानने वालो के लिये यह कम महत्व की सामग्री नहीं।
भारत और चीन की तुलना में यूरोप में बहुत देर से इसका प्रादुर्भाव हुआ। तेरहवीं सदी में यूरोप में गनपावडर खोजा गया। सत्रहवी सदी के पश्चात वहाँ आतिशबाजी की जानकारी प्राप्त होती है जिसके तब दो बडे केंद्र न्यूरेमबर्ग और इटली हुआ करते थे। यदि सभी विवरणों को बहुत ध्यान से देखा जाये तो भारत, चीन और यूरोप में समानान्तर तथा एक दूसरे से भिन्न प्रक्रियाओं द्वारा अग्निचूर्ण/ गनपावडर/ विस्फोटक/आग्नेयास्त्रों आदि का विकास हुआ है। केवल भारत और चीन की ही तुलना की जाये तो अग्निचूर्ण बनाने की जो विधि और सामग्री दोनो देशों में उपयोग में लाई गयी वह गंधक और कोयला जैसी कतिपय समानताओं के अतिरिक्त सर्वथा भिन्न है। ध्यान से पूरे पैटर्न को समझिये। आप दीपावली न मनायें क्योंकि पटाखे आपकी परम्परा का हिस्सा नहीं वे मुगलों के साथ अथवा चीनियों की माध्यम से यहाँ पहुँचे। सच्चाई उलट है कि मुगल शहजादा दाराशिकोह की शादी में जो आतिशबाजी हुई उसके बीज भारत में ही थे। वैचारिक वैमनस्य के कारण वामपंथियों-कथित प्रगतिशीलों द्वारा भारतीय परम्पराओं पर गहरी गहरी चोट करने का सतत प्रयास किया जाता है। प्रदूषण विकसित देशों की उपज है, केवल भारत को इंगित कर उससे इतिश्री नहीं हो सकती। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अलग अलग भौगिलिक परिवेश में एक जैसे शोध चलते रहते हैं। वे हमसे बेहतर, हम उनसे पीछे की मनोवृत्ति के साथ हम सबकुछ बाहर से आया क्यों मान लेना चाहते हैं? हमने यही मान लिया है, अपनी पाठ्यपुस्तकों को उलट-पलट कर तो देखिये।
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