अटल बिहारी बाजपेयी - जिनकी मौत से ठन गई!
(25 दिसम्बर, 1924 - 16 अगस्त, 2018).
16 अगस्त, 2020 - भारत के दशवें प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी का परिनिर्वाण-दिवस, जब 15अगस्त, स्वाधीनता-दिवस की छुट्टी के चलते सारे अखबार बंद रहते हैं। यही बात उनके जन्म पर भी हुई थी- 25 दिसम्बर को जब क्रिस्मस डे के चलते छुट्टी थी। उस दिन भी सारे अखबार बंद रहते हैं और रहे भी! बिना अखबारी चर्चा के उनका जन्मदिन और निधनदिन भी बीत गया! लेकिन जिसके मन में अटल बिहारी वाजपेयीजी का मोल बचपन से ही एक आकर्षक वक्ता के रूप का था, उसके मन के अखबार ने उनके निधन का समाचार तो प्रकाशित कर ही लिया। सहसा आज अटल बिहारी याद आ गये! अगर वाजपेयी जी राजनेता न होते तो एक बड़े कवि होते! उनके जीवन-चरित को याद कर हिन्दी-मिडिया भी अपने कर्तव्य की पूर्ति करके ही मानता! चलो मैं भी अपनी कर्तव्यपूर्ति कर लेता हूँ!
अटल बिहारी वाजपेयी जी एक कुशल वक्ता, एक दूरद्रष्टा, भारतीय संस्कृति के साथ चलनेवाले, अपने विचार से न डिगनेवाले और समय पर उचित सलाह देनेवाले, एक स्वाभिमानी व्यक्तित्व, एक जननायक, एक देशभक्त थे, जो भारत के दशवें प्रधानमंत्री बने और जो एक सहृदय कवि भी थे। प्रधानमंत्री वे 16 मई 1996 से 1,जून, 1996 तक पहलीबार रहे, फिर 19 मार्च, 1998 से 22 मई, 2004 की अवधि मेंं रहे।
कविकुल भूषण अटल बिहारी वाजपेयी का 16 अगस्त, 2018 को दिल्ली में निधन हो गया। एक युग पुरुष अपने अवसान से भी नई रोशनी, नई उर्जा, नया युग दे गया; लेकिन वे सदा ही मौत से लड़ते रहे। उनकी यह कविता कितनी प्रासंगिक है।
अटल जी की यह कविता बताती है कि वे मौत से कभी भयभीत नहीं हुए, वरन् मौत से उनकी ठन गई!
"ठन गई!
मौत से ठन गई।
जूझने का इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक वह खड़ी हो गई,
यों लगा जिन्दगी से बड़ी हो गई!
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
जिन्दगी सिलसिला आजकल की नहीं,
मैं जी भर जिया, मन से मरूँ!
लौट कर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तूँ दबे पाँव, चोरी छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आजमा।
मौत से बेखबर, जिन्दगी का सफर,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई गम ही नहीं,
दर्द अपने पराये कुछ कम ही नहीं,
प्यार इतना परायों से भी मुझको मिला,
न अपनों से बाँकी है कोई गिला!
हर चुनौती से दो हाथ, मैंने किये,
आँधियों में जलाये हैं बुझते दिये।
आज झकझोरता तेज तूफान है,
नाव भँवरों की बाहों में मेहमान है।
पार पाने का कायम मगर हौंसला,
देख तेवर तूफाँ का, तेवरी तन गई।
मौतसे ठन गई!"
देश के लोकप्रिय जननेता, एक विस्मयकारी प्रधानमंत्री, भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी के महाप्रयाण से एक विलक्षण नेतृत्व का विलोप हो गया। उनके जैसे देशनेता और हिन्दी-भाषा के प्रवर्तक के समय में भी हिन्दी राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकी, जिसकी नितान्त आवश्यकता है। वैसे उन्होने सर्वप्रथम हिन्दी को संयुक्त राष्ट्रसंघ में विदेशमंत्री के अपने भाषण के क्रममें प्रतिष्ठित किया। वे श्रीमुरारजीभाई देसाई की सरकार (1977-1979) में विदेशमंत्री थे।
उनके भाषण में गजब का जादू रहता था; जिसको सुनने के लिए हम जैसे लोग और विद्यार्थी खिंचे चले आते थे। बात शायद 1972 के आस-पास की होगी। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में वे आए थे। इन्दिरा गांधी जैसी लौह-महिला भारत की प्रधानमंत्री थीं और विपक्ष के नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने उन्हें दुर्गा का अवतार कह दिया था। अटल के मुँह से उनकी बात सुनने की सबको ललक थी। मैं भी अपवाद में नहीं था। उनका भाषण सुनकर मेरे मन में पूर्व पालित आस्था और दृढ़ हो गयी।
भारतीय जनता पार्टी ने अन्य के मुकाबले उन्हें अपना प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया। अटल जी प्रधानमंत्री बने! जिसकी कहानी अलग है। अभी एक जनप्रिय कवि के रूप में!
वाजपेयी जी एक जन्मजात कवि थे। उनके पिता श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने जमाने के जाने-माने कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ीबोली में रचना करते थे। पुत्र अटल में काव्य के गुण वंशानुगत परिपाटी से प्राप्त हुए। महात्मा रामचन्द्र 'वीर' द्वारा रचित अमर कृति 'विजय पताका' पढ़कर अटलजी के जीवन की दिशा ही बदल गई! 'वीर' हिन्दी में लिखनेवाले एक प्रसिद्ध कवि थे।
अटलजी की प्रकाशित रचनाओं में 'काइडी कविराई' कुण्डलियाँ शामिल हैं, जो 1975-77 के आपात्काल की अवधि में, जब वे कैद किए गए थे, उस समय लिखी कविताओं का संग्रह है और अमर आग है। अपनी कविता के संबंध में उन्होंने लिखा 'मेरी कविता युद्ध की घोषणा है, हारने के लिए एक निर्वासन नहीं है। यह हारनेवाले सैनिक के निराशा की ड्रमबीट नहीं है, लेकिन युद्ध, योद्धा की जीत होगी। यह निराशा की इच्छा नहीं है, लेकिन जीत का हलचल, चिल्लाओ!
अटल बिहारी वाजपेयी जी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कवि भी थे। 'मेरी इक्यावन कवीताएँ'' उनका का प्रसिद्ध काव्य-संग्रह है।
उनकी सर्वप्रथम कविता ताजमहल थी। इसमें शृंगार-रस के प्रेम-प्रसून न चढ़ाकर "एक शहँशाह ने बनवाके हँसी ताजमहल, हम गरीबों की मोहब्बत
का उड़ाया है मजाक!" की तरह उनका भी ध्यान ताजमहल के शोषित कारीगरों के शोषण पर ही गया। वास्तव में कोई भी कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता। अटलजी ने किशोर वय में ही अद्भुत कविता लिखी थी "हिदू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय।" इससे यह पता चलता है कि बचपन से ही वे हिन्दुत्व-विचार के पक्के थे!
राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता सदैव प्रकट होती रही है। उनका संघर्षमय-जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, राष्ट्रवादी आन्दोलन, जेल-जीवन आदि अनेक आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने उनके काव्य में सदैव ही अभिव्यक्ति पाई।
उनकी कविताएँ संगीतबद्ध भी होनेवाली थीं, जिसे विख्यात गजल-गायक जगजीत सिंह ने (चुनिंदा कविताओं को) संगीत बद्ध करके एक एलबम अटलजी के जीवनकाल में ही निकाला था।
अटलजी के बारे में अखण्ड भारत की जो बात थी, वह यहाँ मैं उद्धृत कर रहा हूँः
"15 अगस्त 1947 को देश तो आजाद हो गया, दिन भर हर्षोल्लास भी रहा, लेकिन कहा जाता है कि कानपुर में डीएवी कॉलेज के हॉस्टल में अटलजी निराश थे. वो अखंड भारत की आजादी चाहते थे, बंटवारे के खिलाफ थे. तब उन्होंने एक कविता लिखी- ‘स्वतंत्रता दिवस की पुकार’.
अटल बिहारी वाजपेयी की यूं तो तमाम कविताएं उनके विरोधी भी गुनगुनाते हैं. लेकिन उनकी दो कविताएं ऐसी हैं, जो केवल राष्ट्रवादी खेमे को भाती हैं. उनकी इन दोनों कविताओं को लेकर विरोधी खेमे में खासी एलर्जी रही है, यहां तक कि पाकिस्तानियों को काफी चिढ़ होती है. इनमें से एक कविता है- ‘तन मन हिंदू मेरा परिचय..’ जबकि दूसरी कविता अटलजी ने उस वक्त लिखी थी, जब उन्हें कोई जानता तक नहीं था. ये कविता उन्होंने एक बड़े ही खास दिन लिखी थी.
वो दिन था आजादी का, 15 अगस्त 1947 का दिन. देश तो आजाद हो गया, दिन भर हर्षोल्लास भी रहा, लेकिन कहा जाता है कि कानपुर में डीएवी कॉलेज के हॉस्टल में अटलजी निराश थे. वो अखंड भारत की आजादी चाहते थे, बंटवारे के खिलाफ थे. तब उन्होंने एक कविता लिखी- ‘स्वतंत्रता दिवस की पुकार’.
आप इस पूरी कविता को यहां पढ़ सकते हैं और पढ़ने के बाद आपको अंदाजा हो जाएगा कि पाकिस्तानी और टुकड़े-टुकड़े गैंग वाजपेयी की इस कविता से क्यों चिढ़ता है-
‘पन्द्रह अगस्त का दिन कहता, आजादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ न पूरी है॥
जिनकी लाशों पर पग धर कर, आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश, गम की काली बदली छाई॥
कलकत्ते के फुटपाथों पर, जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥
हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते, यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो, सभ्यता जहां कुचली जाती॥
इंसान जहां बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है, डॉलर मन में मुस्काता है॥
भूखों को गोली, नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है गमगीन गुलामी का साया॥
बस इसीलिए तो कहता हूं आजादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊं मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएंगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएंगे॥
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएं, जो खोया उसका ध्यान करें॥ "
उनकी, नीचे लिखी इस कविता से लोग आज भी अणुप्राणित होते हैं और अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने में इसे दृष्टि-बिंदु के रूप में लेते हैं:-
''गीत' नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर,
पत्थर की छाती
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ।'
राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता सदैव प्रकट होती रही है। उनका संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेल-जीवन आदि अनेक आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में सदैव ही अभीव्यक्ति पाई।
अटलजी एक महामानव थे, मानवता की बात जहाँ हो वे सदैव आगे रहते थे। अपने विचार किसी पर थोपते नहीं थे। यही कारण था कि जब बाबरीढाँचा का विध्वंश हो रहा था, अटलजी अयोध्या में नहीं दिल्ली में थे। जेल में रहे तो जमकर रचनाएँ की। दुनिया की बड़ी शक्तियां जब परमाणु प्रसार का विरोध कर रही थी, उन्होंने परमाणु-परीक्षण कर दुनिया को चौंका दिया।
प्रधानमंत्री का पद छोड़ने के बाद वे एकदम एकान्त में हो गये। उन्होंने अपने घुटनों को बदलवाया, जो पूरा सफल नहीं रहा। स्वास्थ्य की लाचारी से वे अपने निवास में ही रहे, पर उनकी मृत्यु ने सोये हुओं को जगा दिया।
अटलजी जन्मजात कवि तो थे ही, वे सच्चे अर्थों में देशभक्त थे और सच्चे स्वतंंत्रता-प्रेमी!
उनके द्वितीय परिनिर्वाण दिवस पर हम उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पण करते हैं!
- योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे. पी. मिश्र)
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