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"अहं और क्षितिज"

"अहं और क्षितिज"

पंकज शर्मा
मैंने जाना है—
कि कुछ गाँठें
उँगलियों के बल से नहीं खुलतीं,
उनके लिए रीढ़ का
एक सूक्ष्म वक्र चाहिए।
यह झुकना
पराजय नहीं,
अहं के कठोर वृत्त से
सत्य की खुली रेखा तक
एक मौन संचरण है।


नदी, जब पत्थरों से टकराती है,
तो ऊँचाई का लेखा नहीं माँगती—
वह बस
अपने भीतर का वेग बचाए रखती है,
थोड़ा झुककर
अपनी दिशा पुनः गढ़ लेती है।
क्योंकि उसका लक्ष्य
बहना है,
ठहरकर स्वयं को
प्रतिमा में बदल लेना नहीं।


मैंने भी
अपनी अनेक उलझनों को
संघर्ष से नहीं,
मौन के सहारे सुलझाया है।
हर बार टकरा जाना
अस्तित्व का प्रमाण नहीं होता—
कभी-कभी
पीछे हटना ही
आत्मा की आगे की यात्रा है।


भीड़ में
हर चेहरा
अपनी अलग छाया रखता है,
पर सभी छायाएँ
मेरे प्रकाश की सीमा नहीं बन सकतीं।
कद सबका समान नहीं—
कोई मन से
क्षितिज छूता है,
कोई धरती पर रहते हुए भी
आकाश की तरह विशाल होता है।


मैंने सीखा है—
कि ऊँचाई
सिर की स्थिति नहीं,
चेतना का आयाम है।
जो झुककर भी
स्वयं को बचा ले,
वही वास्तव में
अपने होने को
विस्तार देता है।


जहाँ संवाद चूक जाता है,
वहीं से
संवेदना का पुल आरंभ होता है।
मेरे झुकने ने
उस रिक्तता को भर दिया,
जिसे शब्द नहीं,
केवल स्वीकार
स्पर्श कर सकता था।


वह जो सामने खड़ा है,
वह केवल देह है—
उसका ‘होना’
उसके कद की परिधि में बँधा है।
पर मेरा झुकना
उस सीमा के पार
एक प्रश्नचिह्न रख देता है।


अंततः
ऊँचाई
एक सापेक्ष सत्य है—
जैसे पर्वत से दिखता
नन्हा-सा घर।
मैंने अपनी गाँठें
झुककर सुलझाईं,
ताकि समझ सकूँ—
कि कद से बड़ा
वह शून्य है
जिसे केवल प्रेम भर सकता है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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