महामना पंडित मदन मोहन मालवीय राष्ट्र के अनमोल रत्न
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय इतिहास के आकाश में पंडित मदन मोहन मालवीय एक ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिन्होंने अपनी बौद्धिक आभा और नैतिक शक्ति से गुलामी की कन्दराओं में सोए हुए भारत को जगाने का कार्य किया। 25 दिसम्बर 1861 को तीर्थराज प्रयाग की पावन भूमि पर जन्में मालवीय जी मात्र एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक संस्था थे। वे भारत के पहले और अंतिम व्यक्ति थे जिन्हें 'महामना' (महान मन वाला) की सम्मानजनक उपाधि से लोक-मानस ने विभूषित किया। वे एक कुशल राजनीतिज्ञ, प्रखर पत्रकार, निर्भीक वकील, महान समाज सुधारक और शिक्षा जगत में अलख जगाया ।
मालवीय जी का जन्म एक अत्यंत साधारण लेकिन संस्कारवान ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता पंडित ब्रजनाथ और माता मूनादेवी धार्मिक विचारों के थे। उनके पूर्वज मालवा से आए थे, इसीलिए वे 'मालवीय' कहलाए। मालवीय जी की प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में हुई, जिसने उनके जीवन में सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट प्रेम का बीजारोपण किया।
1884 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद वे शिक्षक बने, लेकिन उनके भीतर देश सेवा की अग्नि प्रज्वलित थी। उन्होंने 'मकरंद' उपनाम से कविताएँ लिखकर अपनी रचनात्मक यात्रा शुरू की और बाद में वकालत की शिक्षा प्राप्त कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपनी मेधा का लोहा मनवाया । मालवीय जी के जीवन का सबसे बड़ा और महानतम कार्य काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) की स्थापना है। उनकी परिकल्पना एक ऐसे शिक्षा केंद्र की थी जहाँ आधुनिक विज्ञान और पाश्चात्य तकनीक के साथ-साथ प्राचीन भारतीय ज्ञान और नैतिक मूल्यों का संगम हो। स्थापना का संकल्प: 1916 में बसंत पंचमी के दिन इसकी नींव रखी गई। भिक्षाटन से विश्वविद्यालय: के निर्माण के लिए मालवीय जी ने पूरे देश से दान माँगा। कहा जाता है कि उन्होंने "राजा से लेकर रंक" तक के सामने हाथ फैलाया। हैदराबाद के निजाम से लेकर छोटे किसानों तक ने इस महायज्ञ में आहुति दी। : मालवीय जी चाहते थे कि यहाँ के विद्यार्थी न केवल शिक्षित हों, बल्कि उनमें देशभक्ति, चरित्र और आत्मत्याग की भावना भी कूट-कूट कर भरी हो। आज BHU एशिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय है, जो उनके सपनों को जीवंत रखे हुए है। मालवीय जी का मानना था कि किसी भी राष्ट्र की उन्नति उसकी अपनी भाषा के बिना संभव नहीं है। उन्होंने हिंदी को न्यायालयों और सरकारी कामकाज में स्थान दिलाने के लिए भगीरथ प्रयास किए। उन्होंने 'हिंदुस्तान', 'इण्डियन ओपीनियन', 'अभ्युदय', 'मर्यादा' और 'लीडर' जैसे समाचार पत्रों के माध्यम से जनचेतना जगाई। 1924 में उन्होंने 'हिंदुस्तान टाइम्स' को पुनर्जीवित किया। हिंदी साहित्य सम्मेलन: वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अध्यक्ष थे। उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि "जिस प्रकार अंग्रेजी विश्वभाषा बन रही है, एक दिन हिंदी भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित होगी।" न्यायालय में हिंदी: 1898 में उनके अथक प्रयासों से ही तत्कालीन संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) की अदालतों में देवनागरी लिपि को प्रवेश कराया । मालवीय जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आधार स्तंभों में से एक थे। वे चार बार (1909, 1918, 1930 और 1932) कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए, जो उनकी नेतृत्व क्षमता का प्रमाण है।
सत्यमेव जयते: भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य 'सत्यमेव जयते' मालवीय जी की ही देन है। उन्होंने ही कांग्रेस के मंच से इस मंत्र को लोकप्रिय बनाया, जो बाद में राष्ट्र का प्रतीक बना। नरम और गरम दल के बीच सेतु: वे एक ऐसे नेता थे जिनका सम्मान बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले दोनों ही समान रूप से करते थे। वे विभिन्न मतों के बीच एकता की मूर्ति थे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई। रौलट एक्ट के विरोध में उन्होंने कौंसिल में लगातार साढ़े चार घंटे भाषण दिया, जो आज भी संसदीय इतिहास में स्मरणीय है। मालवीय जी कट्टर सनातनी थे, लेकिन उनके विचार संकीर्ण नहीं थे। उन्होंने छुआछूत और जातिवाद जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ निरंतर संघर्ष किया। उन्होंने काशी और प्रयाग में दलितों को मंत्र दीक्षा दी और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया। वे कहते थे कि "ईश्वर की संतान होने के नाते हर मनुष्य समान है।"हरिद्वार की गंगा आरती में हर की पौड़ी पर जो भव्य गंगा आरती देखते हैं, उसका सूत्रपात मालवीय जी ने ही किया था। उन्होंने 'गंगा सभा' की स्थापना कर माँ गंगा की अविरलता के लिए संघर्ष किया। मालवीय जी का जीवन 'सादा जीवन, उच्च विचार' का सर्वोत्तम उदाहरण था। वे सदैव श्वेत धोती, कुर्ता और सिर पर विशिष्ट शैली की पगड़ी धारण करते थे। उनके व्यवहार में ऐसी मृदुता थी कि शत्रु भी उनके प्रशंसक बन जाते थे। वे ब्रह्मचर्य, व्यायाम और नियमित संध्या-उपासना को जीवन का अनिवार्य अंग मानते थे।
12 नवंबर 1946 को इस महान विभूति ने नश्वर शरीर त्याग दिया, लेकिन उनके आदर्श आज भी राष्ट्र का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं । उनकी सेवाओं को देखते हुए भारत सरकार ने 24 दिसंबर 2014 को उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से अलंकृत किया। उनके सम्मान में वाराणसी और दिल्ली के बीच एक विशेष ट्रेन 'महामना एक्सप्रेस' चलाई गई। सम्पूर्ण वाङ्मय: हाल ही में (2023) उनके लेखों और भाषणों का 11 खंडों में संकलन 'पंडित मदनमोहन मालवीय सम्पूर्ण वाङ्मय' के रूप में प्रकाशित किया गया है । महामना मदन मोहन मालवीय केवल अतीत के नायक नहीं हैं, बल्कि वर्तमान भारत के लिए एक प्रेरणापुंज हैं। उन्होंने हमें सिखाया कि बिना अपनी जड़ों (संस्कृति) को छोड़े कैसे आधुनिकता की ओर बढ़ा जा सकता है। उनका नारा "सिर जाय तो जाय प्रभु! मेरो धर्म न जाय" उनके अडिग चरित्र को दर्शाता है। आज जब हम एक 'विकसित भारत' की ओर बढ़ रहे हैं, तो मालवीय जी के शैक्षिक और नैतिक मूल्य हमारे लिए ध्रुव तारे के समान हैं।
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