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गुरु गोबिंद सिंह: युगपुरुष, संत-सिपाही और मानवता के रक्षक

गुरु गोबिंद सिंह: युगपुरुष, संत-सिपाही और मानवता के रक्षक

सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय इतिहास के आकाश में गुरु गोबिंद सिंह जी एक ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिनकी चमक सदियों बाद भी फीकी नहीं पड़ी है। वे केवल एक धार्मिक गुरु नहीं थे, बल्कि एक महान कवि, अद्वितीय योद्धा, कुशल रणनीतिकार और एक ऐसे समाज सुधारक थे जिन्होंने मुर्दा हो चुकी कौम में प्राण फूँक दिए। उनका जीवन 'भक्ति' और 'शक्ति' का वह दुर्लभ संगम है, जिसे दुनिया 'संत-सिपाही' के नाम से जानती है। पटना की धरती और दैवीय आगमन पौष सुदी सप्तमी विक्रम संबत 1723 व 22 दिसम्बर 1666 को बिहार के पटना साहिब में एक ऐसी ज्योति का अवतरण हुआ, जिसे इतिहास ने 'गोबिंद राय' के नाम से पुकारा। उनके पिता, नौवें गुरु तेग बहादुर जी, उस समय असम की यात्रा पर थे। बालक गोबिंद का बचपन गंगा के किनारे पटना की गलियों में बीता।।बचपन से ही उनके खेल सामान्य बालकों से भिन्न थे। वे टोलियां बनाकर युद्ध का अभ्यास करते थे। पटना की एक सुंदर कथा 'मैणी संगत' की है, जहाँ एक निसंतान रानी ने उन्हें पुत्र रूप में चाहा और बालक गोबिंद ने उनकी गोद में बैठकर उन्हें मातृत्व का सुख दिया। आज भी वहाँ प्रसाद में उबले छोले और पूरियाँ बांटी जाती हैं, जो उस सरल प्रेम का प्रतीक हैं । मात्र 9 वर्ष की आयु में बालक गोबिंद के कंधों पर पूरे धर्म और राष्ट्र का भार आ गया। जब कश्मीरी पंडितों की पुकार सुनकर उनके पिता गुरु तेग बहादुर जी ने दिल्ली के चांदनी चौक में अपना शीश दे दिया, तो बालक गोबिंद ने शोक मनाने के बजाय उस बलिदान को एक क्रांति में बदल दिया। उन्होंने महसूस किया कि अत्याचार को रोकने के लिए केवल प्रार्थना पर्याप्त नहीं, बल्कि शस्त्र उठाना भी अनिवार्य है।
आनंदपुर साहिब और खालसा का सृजन (1699) - गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन का सबसे क्रांतिकारी मोड़ 1699 की बैसाखी थी। आनंदपुर साहिब के विशाल मैदान में हजारों की भीड़ के सामने गुरु जी हाथ में नंगी तलवार लेकर निकले और एक सिर की मांग की। एक-एक करके पांच वीर (पांच प्यारे) उठे। गुरु जी ने उन्हें 'अमृत' छकाया और जाति-पाति के बंधनों को तोड़कर एक नई कौम 'खालसा' का सृजन किया।।उन्होंने घोषणा की— "मानस की जात सबै एकै पहचानबो" (पूरी मनुष्य जाति एक है)। उन्होंने सिखों को 'सिंह' और महिलाओं को 'कौर' की पदवी देकर समाज में समानता और आत्मसम्मान का संचार किया।गुरु जी ने खालसा को पांच चिह्न (केश, कंघा, कड़ा, कछैरा और कृपाण) दिए। यह केवल धार्मिक पहचान नहीं थी, बल्कि एक पूर्ण जीवन पद्धति थी: केश: परमात्मा की रज़ा में रहना। कंघा: तन और मन की स्वच्छता। कड़ा: मर्यादा और धर्म का बंधन। कछैरा: फुर्ती और चारित्रिक पवित्रता कृपाण: अत्याचार के के विरुद्ध संकल्प है। गुरु जी ने अपने जीवन में कई युद्ध लड़े, लेकिन वे कभी राज्य विस्तार के लिए नहीं थे। उनका पहला युद्ध भंगाणी (1688) में हुआ, जहाँ उन्होंने पहाड़ी राजाओं की संयुक्त सेना को धूल चटाई। इतिहास का सबसे असमान युद्ध चमकौर (1704) में लड़ा गया। एक तरफ मुगलों की 10 लाख की सेना (कुछ इतिहासकार इसे लाखों की भीड़ कहते हैं) और दूसरी तरफ मात्र 40 सिख। गुरु जी ने अपने दो बड़े साहिबजादों, अजीत सिंह और जुझार सिंह को अपनी आँखों के सामने शहीद होते देखा, फिर भी उनके चेहरे पर शिकन नहीं थी। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि— "सवा लाख से एक लड़ाऊं, तबै गोबिंद सिंह नाम कहाऊं।" गुरु जी के दो छोटे पुत्रों, जोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहिंद के नवाब ने जिंदा दीवार में चुनवा दिया क्योंकि उन्होंने अपना धर्म और गौरव छोड़ने से इनकार कर दिया था। इस बलिदान ने मुगल साम्राज्य की जड़ें हिला दीं। जब गुरु जी को इसकी सूचना मिली, तो उन्होंने एक तिनका उखाड़कर कहा कि आज से मुगल साम्राज्य की जड़ें उखड़ गई हैं। युद्धों के बीच गुरु जी ने औरंगजेब को फारसी में एक पत्र लिखा, जिसे 'जफरनामा' (विजय पत्र) कहा जाता है। उन्होंने लिखा कि तुमने छल से युद्ध जीता होगा, लेकिन नैतिक रूप से तुम हार चुके हो। उन्होंने युद्ध का सिद्धांत स्पष्ट किया:"चूं कार अज़ हमह हीलते दर गुज़शत, हलाल अस्त बुरदन बह शमशीर दस्त।" (अर्थ: जब न्याय के सभी मार्ग बंद हजाएं, तभी तलवार उठाना धर्मसंगत है।) गुरु जी ने अपनी आत्मकथा 'बचित्तर नाटक' में अपने पूर्व जन्म का वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि हिमालय की गोद में स्थित हेमकुंड की पहाड़ियों पर उन्होंने घोर तपस्या की थी। उनका यह लगाव दर्शाता है कि वे केवल एक सांसारिक योद्धा नहीं, बल्कि एक उच्च कोटि के योगी थे जिनका संबंध प्रकृति और ईश्वर से बहुत गहरा था।
गुरु गोबिंद सिंह जी की तलवार जितनी तेज थी, उनकी कलम उतनी ही कोमल और प्रभावी थी। उन्होंने 'जाप साहिब', 'अकाल उस्तत' और 'चंडी दी वार' जैसी रचनाएँ कीं। उन्होंने 'दशम ग्रंथ' के रूप में महान साहित्य का सृजन किया। उनके दरबार में 52 कवियों का निवास था, जो इस बात का प्रमाण है कि वे विद्या और कला के महान संत थे ।
अपने अंतिम समय में नांदेड़ (महाराष्ट्र) में उन्होंने गुरु परंपरा को एक नया मोड़ दिया। उन्होंने घोषणा की कि उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा। उन्होंने 'गुरु ग्रंथ साहिब' को सिखों का शाश्वत गुरु घोषित किया। यह संदेश दिया कि शब्द (वाणी) ही सबसे बड़ा गुरु है। गुरु गोबिंद सिंह जी का जीवन एक जलती हुई मशाल के समान है। उन्होंने हमें सिखाया कि अत्याचार सहना पाप है और धर्म की रक्षा के लिए सर्वस्व अर्पण करना ही जीवन की सार्थकता है। वे एक ऐसे नायक थे जिन्होंने हार को जीत में बदला और मौत को शहादत का उत्सव बना दिया। आज भी उनका नाम जज्बे, साहस और असीम श्रद्धा के साथ लिया जाता है।


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