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"जब हवा बोझिल हुई"

"जब हवा बोझिल हुई"

पंकज शर्मा
कभी वायु
नील गगन की
निर्मल हँसी थी—
स्पर्शहीन, पारदर्शी।
आज वही
धुएँ की शाल ओढ़े
हमारे द्वार पर
मौन खड़ी है,
जैसे कुछ पूछना चाहती हो।


आकाश के स्वप्न
अब धुँधले हो गए हैं।
नीलिमा
स्मृति की कोख में
सिकुड़ती जा रही है।
बालक जब ऊपर देखते हैं,
तो प्रश्न उनकी आँखों में है—
और उत्तर
हमारी चुप्पी में।


नदियाँ कभी
धरती की धमनियाँ थीं—
आज वे
रुकी हुई वेदना हैं।
उनकी सतह पर
सभ्यता का मैल तैरता है,
और गहराइयों में
जीवन दम तोड़ता है।


हमने प्रगति को
लोहे के पंख दिए,
पर यह भूल गए
कि उड़ान के लिए
नील आकाश चाहिए।
गति के उन्माद में
संतुलन
कहीं पीछे छूट गया।


जब हमने
वायु को बाँधा,
जल को मोड़ा,
हमने यह नहीं जाना
कि प्रकृति
प्रतिशोध नहीं लेती—
वह केवल
स्मरण कराती है।
अब हर श्वास,
हर बूँद
एक चेतावनी है।


आज वायु और जल
दोनों विलाप कर रहे हैं—
एक हमारी साँसों में,
दूसरा हमारे रक्त में।
यदि अब भी
मानव सभ्यता
संयम और करुणा का
आह्वान न सुने,
तो मनुष्य नहीं,
केवल उसका
खोखला इतिहास
धरती पर रह जाएगा।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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