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"मौन की देह"

"मौन की देह"

पंकज शर्मा
कभी-कभी सोचता हूँ—
क्या दर्द भी एक भाषा है,
जिसे बोलने की मनाही है इस संसार में?
हर मुस्कान, एक अनुबंध-सी लगती है,
कि तुम दुख को परोस नहीं सकते,
जब तक उसे चमक में न लपेटो।
हम सबने सीखा है—
अपनी पीड़ा को सौंदर्य की तरह पेश करना,
जैसे दुख भी कोई आभूषण हो,
जो भीड़ को लुभा सके।
अंतर्मन की कराह
सिर्फ़ अपनी दीवारों तक सीमित रहती है।

“मैं ठीक हूँ”—
यह केवल उत्तर नहीं,
एक दीर्घ साधना है,
जिसमें हम अपने घावों को
स्वीकार नहीं,
बल्कि नकारते चले जाते हैं।

चेहरा अब आईने से अधिक झूठ बोलता है,
क्योंकि भीतर का सत्य
आईने की नमी से डरता है।
सच कहो तो लोग असहज हो उठते हैं,
मानो सत्य कोई अभद्रता हो।

रोना अब दुर्लभ कौशल है—
जिसे सभ्यता ने “कमज़ोरी” घोषित किया है।
इसलिए हम हँसते हैं—
ताकि अपने अस्तित्व को
स्वीकार्य बनाए रख सकें।

भीतर एक मौन बहता है,
जो शब्दों से नहीं,
सिर्फ अनुभव से सुना जा सकता है।
वही मौन, जो आत्मा की देह है,
जहाँ दर्द और शांति
एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं।

कभी तो इच्छा होती है—
कि उस मौन में उतर जाऊँ,
जहाँ कोई भूमिका नहीं,
कोई मुखौटा नहीं,
सिर्फ एक अनावृत्त “मैं” है,
जो दुख को भी स्वीकार करता है,
जैसे वर्षा मिट्टी को।

शायद वही मुक्ति है—
जब मुस्कान का भार उतर जाए,
और मन न कहे “मैं ठीक हूँ”,
बल्कि कहे—
“मैं हूँ, और यही पर्याप्त है।”


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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