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"अंतर्दर्शन की दीक्षा"

"अंतर्दर्शन की दीक्षा"

✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
जो घाव देह पर दिखते ही नहीं,
वे ही होते स्वरहीन संदेश कहीं।
नियति का गूढ़ संकेत है वही,
मन की धरती पर पड़ते मही।


जब अंतर्मन में दर्द पिघलता,
तब वैराग्य सुफल अंकुरता।
नश्वरता का स्पर्श चुभे जब,
जीवन दर्शन जाग उठे तब।


संघर्ष-कठिन और पथराईं राहें,
बन जाती हैं आत्मा की चाहें।
बाधाएँ कभी फिर बाधा न रहें,
उद्देश्य! दीपज्योति-सी आगे बढ़ें।


ये पीड़ा तन को छूती नहीं,
पर आत्मा को गढ़ जाती है।
मृगतृष्णा-सा यह जगत सारा,
सच का परदा जो हटाती है।


इन क्षत-विक्षत अनुभवों में,
अंतर की शक्ति प्रखर होती।
बंधन-भंग की चाह जगे,
सत्य-दीपक भीतर ही बुझती जलती।


उत्थान इन्हीं से पाता मानव,
मोक्ष-मार्ग पर चलता नव।
अंतर्दर्शन की यही दीक्षा ,
दुख को बनाना शक्ति की रेखा।


जीवन चंद क्षणों का सेतु,
सत्य वही जो भीतर प्रकटू।
मन जब सब बंधन त्याग सके,
शाश्वत प्रकाश से भाग्य जगे।
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