महर्षि_दधीचि
डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"त्याग-बलिदान की अखंड जोत,
जलाए जीवन में प्रभोत।
दधीचि महर्षि थे तेज पुञ्ज,
आज भी कर रहा है गूंज।।
वज्र बना जिनकी अस्थि महान,
जीत सके जिनसे सुर-स्थान।
निज तन त्यागें धर्म लिए,
सुर संकट में कर्म किए।।
पुत्र नन्हा रह गया अकेला,
जीवन से जैसे हो हेला।
माँ ने भी जब सती सजी,
विधि ने ली थी अग्नि-परी।।
पीपल कोटर बना निवाला,
बालक भूखा प्यासा आला।
गोदों से पेट पाला भूखे,
रोया पल-पल जीवन रूखे।।
नारद आए, देखा हाल,
पीपल पुत्र बना प्रतिपाल।
दिया नाम फिर 'पिप्पलाद',
यश फैला नभ, धरती, बाद।।
शनि से जब सुनी कहानी,
जागी हृदय में पीर पुरानी।
तप कर माँगा अग्नि-दृष्टि,
जले शनि देखे बिना सृष्टि।।
ब्रह्मा आए, रोका ज्वार,
वर मांगे बालक अपार।
निज पीड़ा को धर्म बनाया,
तब मानवता को उर लाया।।
बालक बोले दो वरदान,
न हो शनि से फिर अपमान।
पाँच वर्ष तक बालक न्यारे,
न शनि भोगें दुःख के मारे।।
पीपल जिसने पाला मुझको,
दे शरण जीवन भर मुझको।
जो अर्घ्य चढ़ाए पूरब तारा,
शनि का दुख हो दूर सारा।।
ब्रह्मा बोले "तथास्तु पुत्र",
शनि बंधन से हों मुक्त।
पाँव पड़े ब्रह्मदण्ड प्रचंड,
शनि गए मंद गति में बंध।।
तब से ही शनि हैं शनै:चर,
पीपल पूजें नर-नारी हर।
दधीचि के पुत्र, तपो-प्रकाश,
पिप्पलाद बने सत्य-विशाल।।
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जय दधीचि! जय त्याग महान!
जिनसे रक्षित हो मानव-ज्ञान।।
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