अक्षर, शब्द, वाक्य और ग्रंथ: भारतीय साहित्यशास्त्र का मूल आधार
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय चिंतन परंपरा में भाषा, केवल संप्रेषण का माध्यम मात्र नहीं, बल्कि सृष्टि के रहस्य और आत्म-अभिव्यक्ति का साधन है। यह आलेख, भारतीय साहित्य और व्याकरण के आधारभूत स्तंभों—अक्षर, शब्द, वाक्य और ग्रंथ—के महत्व का विशेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। इन चारों तत्वों का क्रमिक विकास किस प्रकार साहित्य के विशाल भवन का निर्माण करता है, इसे प्राकृत, संस्कृत और भारतीय काव्यशास्त्र के सिद्धांतों के आलोक में समझा जाएगा।
. अक्षर: ध्वनि, सत्ता और मंत्र -,'अक्षर' का अर्थ है, जो नष्ट न हो (अ+क्षर)। यह ध्वनि की अविनाशी इकाई है। भारतीय दर्शन इसे 'नाद' या 'परम-तत्व' से जोड़ता है।: प्राकृत, जो कि संस्कृत की अपेक्षा अधिक सहज और लोक-सुलभ भाषा थी, ने अक्षरों को स्थानीय और व्यवहारिक रूप प्रदान किया। इस सरलता ने ही आगे चलकर भाषाओं के विकास की नींव रखी। अक्षर और मंत्र: यह माना गया है कि अक्षर ही मंत्र है। जैसे 'ॐ' (प्रणव) एक अक्षर है जो समस्त सृष्टि का बीज है। प्रत्येक अक्षर में एक शक्ति (बीजाक्षर) निहित है, जो उसका उच्चारण करने वाले को प्रभावित करती है।
भारतीय चिंतन परंपरा में भाषा—अक्षर, शब्द, वाक्य, और ग्रंथ—केवल संप्रेषण के उपकरण नहीं, बल्कि सृष्टि के रहस्य और ज्ञान के संरक्षण के वाहक हैं। प्रस्तुत आलेख, भारतीय साहित्य और व्याकरण के महान आचार्यों—पतंजलि, राजशेखर, मम्मट भट्ट, और विश्वनाथ—के सिद्धांतों के आलोक में इन चारों तत्वों के दार्शनिक आधार और काव्यशास्त्रीय महत्व का विशेषणात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन करता है। यह विश्लेषण इस आधार पर टिका है कि प्राकृत की सरलता से उपजे सहज शब्द किस प्रकार संस्कृत के महान सिद्धांतों, जैसे 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' और 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति', का केंद्र बनते हैं। आपके सूत्र, कि 'अक्षर ही मंत्र है' और 'वानोच्छेदि जगत सर्वम्', इस संपूर्ण विवेचन की आधारशिला हैं।
. अक्षर: अविनाशी बीज और शब्द-ब्रह्म का प्रथम सोपान है। 'अक्षर' (अ+क्षर) का शाब्दिक अर्थ है अविनाशी। यह ध्वनि की वह मूलभूत और सूक्ष्म इकाई है जिसे भारतीय दर्शन में परम-तत्व के तुल्य माना गया है। अक्षर ही मंत्र है, और मंत्र ही शब्द-शक्ति का उद्गम है। महर्षि पतंजलि ने अपने 'व्याकरण महाभाष्य' में अक्षर की शुद्धता को संरक्षण का मुख्य लक्ष्य माना। उनके अनुसार, भाषा की विकृति से अर्थ विकृत होता है, जिससे वैदिक कर्मकांडों की सिद्धि बाधित होती है। शब्द-ब्रह्म का बीज: अक्षरों को 'नाद' या 'ओम्' (प्रणव) की अभिव्यक्ति माना गया। यह विचार अक्षर को केवल वर्णमाला का हिस्सा न मानकर, दैवीय सत्ता से जोड़ता है। पतंजलि के पूर्ववर्ती शिक्षा ग्रंथों और प्रातिशाख्यों व वैदिक व्याकरण में अक्षर के स्थान , प्रयत्न और उच्चारण की शुद्धता पर अत्यधिक बल दिया गया। यह वैज्ञानिक आधार सिद्ध करता है कि भारतीय भाषा विज्ञान ने अक्षर को केवल एक ध्वनि नहीं, बल्कि एक भौतिक और आध्यात्मिक ऊर्जा है।
प्राकृत भाषा, जिसका उल्लेख आपके आधार में है, ने अक्षरों को एक नया आयाम दिया है। जटिल, संयुक्त अक्षरों की प्रधानता (, क्ष्, त्र, ज्ञ)। जटिल संयुक्त अक्षरों का सरलीकरण या द्वित्वीकरण (कर्म' का 'कम्म')। प्राकृत का देन यह था कि उसने उच्चारण को सहज बनाकर भाषा को जनसामान्य तक पहुँचाया, जिससे विचारों और भावनाओं की अभिव्यक्ति लोक-सुलभ हुई। यह सरलता ही ग्रंथ के व्यापक प्रसार का आधार बनी। शास्त्रीय शुद्धता और कठोर नियम। स्थानीय भेदों और बोलचाल की सहजता को वरीयता। संस्कृत ने अक्षर को संरक्षित किया; प्राकृत ने अक्षर को प्रसारित किया। दोनों ने ही अक्षर को आधारभूत इकाई के रूप में स्वीकार किया।
जब अक्षर एक निश्चित अर्थ के साथ संयुक्त होते हैं, तो शब्द का निर्माण होता है। शब्द ही विचार और जगत के बीच सेतु है। आचार्य भर्तृहरि ने अपने 'वाक्यपदीय' में स्फोट सिद्धांत को पराकाष्ठा पर पहुँचाया, जिसने शब्द को केवल ध्वनि-समूह न मानकर दार्शनिक सत्ता प्रदान की। स्फोट की अवधारणा: भर्तृहरि के अनुसार, वास्तविक शब्द (स्फोट) एक अखंड, नित्य और अर्थ-वाहक इकाई है जो वक्ता के मस्तिष्क में पहले से विद्यमान रहती है। ध्वनि (ध्वनि) केवल उसे अभिव्यंजित करती है। शब्द का अर्थ सुनते ही मन में 'फूट' पड़ता है, इसलिए यह 'स्फोट' है। शब्द-ब्रह्म: भर्तृहरि ने स्फोट को शब्द-ब्रह्म से अभिन्न माना, जो अंतिम सत्य है। यह सिद्ध करता है कि भारतीय दर्शन में एक शब्द की उत्पत्ति, उसके अर्थ से अविच्छिन्न मानी गई है।
आचार्य मम्मट ने अपने 'काव्यप्रकाश' में शब्द की तीन शक्तियों का विस्तृत वर्गीकरण किया, जो शब्द को काव्य का अनिवार्य अंग बनाता है: : सीधा और वाच्य अर्थ (जैसे 'घोड़ा' कहने पर पशु का बोध)।जब मुख्य अर्थ बाधित होता है तो रूढ़ि या प्रयोजन के आधार पर दूसरा अर्थ लिया जाता है (जैसे 'गंगा पर गाँव है' में 'तट' का अर्थ)।व्यंजना (ध्वन्यार्थ): यह वह गूढ़ शक्ति है जो रस की प्रतीति कराती है। मम्मट ने ध्वनि सिद्धांत को स्वीकार करते हुए माना कि काव्य का उत्तम अंश वह है जहाँ व्यंग्यार्थ (अर्थात रस) वाच्यार्थ से अधिक चमत्कारी होता है।मम्मट और अन्य आचार्यों के अनुसार, केवल अर्थ-संप्रेषण शब्द का कार्य नहीं है, बल्कि व्यंग्यार्थ (रस) का वहन करना ही उसकी श्रेष्ठता है।
रसात्मकता की कसौटी और काव्य की आत्मा शब्दों का सार्थक, आकांक्षापूर्ण और सन्निधियुक्त समूह वाक्य कहलाता है। भारतीय काव्यशास्त्र में, वाक्य की सफलता उसके रस-सामर्थ्य पर निर्भर करती है। विश्वनाथ का रस सिद्धांत: वाक्यं रसात्मकं काव्यम् - आचार्य विश्वनाथ ने 'साहित्यदर्पण' में काव्य की सबसे सटीक परिभाषा देते हुए कहा: "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्।""जिस शब्दों में रस नही वाक्य नही बन सकता है" का मूल यही है। यह सिद्धांत रस को काव्य की आत्मा घोषित करता है। रस की अनिवार्यता: वह वाक्य जो केवल सूचना देता है (जैसे 'सूर्य पूरब में उगता है'), वह व्याकरणिक वाक्य तो है, पर काव्य नहीं। काव्य वाक्य वह है जो स्थायी भाव को विभाव, अनुभाव, और संचारी भावों के माध्यम से आस्वादन (चर्वणा) योग्य बनाकर अलौकिक आनंद प्रदान करे। सौंदर्य और आत्मा में : वाक्य केवल शरीर (शब्द-विन्यास) है, जबकि रस उसकी आत्मा है। आत्मा के बिना शरीर निष्प्राण है। अतः, रस-रहित अभिव्यक्ति को ग्रंथ या साहित्य के उच्च कोटि में स्थान नहीं दिया जा सकता।
राजशेखर का गद्य विमर्श: गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति में राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' में वाक्य-विन्यास की महत्ता पर बल दिया, विशेषकर गद्य में।"गद्य ही कवियों की कसौटी है।" पद्य में छंद, लय और तुक के कारण एक सहज आकर्षण होता है, जो कई बार कवि की कमजोर कल्पना को भी छिपा लेता है। गद्य में कवि को अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए केवल प्रभावी शब्द-चयन, सुगठित वाक्य-विन्यास और अर्थ-गांभीर्य पर निर्भर रहना पड़ता है। यहाँ, रस की प्रतीति पूरी तरह से वाक्य की सामर्थ्य पर निर्भर करती है। यह सिद्धांत सिद्ध करता है कि एक उत्कृष्ट वाक्य रचना की कला ही किसी लेखक को साधारण 'कथनकार' से 'कवि' (सृजनकर्ता) बनाती है। ग्रंथ अक्षर, शब्द और रसात्मक वाक्यों का वह सुनिश्चित संयोजन है जो किसी उद्देश्य, दर्शन, या ज्ञान को आने वाली पीढ़ियों के लिए स्थायी रूप प्रदान करता है। सूत्र 'वानोच्छेदि जगत सर्वम्' (संपूर्ण जगत वाणी में समाहित है) का चरम रूप ग्रंथ है। ग्रंथ ही वह माध्यम है जिसके द्वारा वेद, उपनिषद, दर्शन और कला का ज्ञान, जिसे अक्षर-मंत्र और रसात्मक वाक्य में पिरोया गया, काल की सीमाओं को पार कर जाता है। सभ्यता की चेतना: किसी भी सभ्यता की सामूहिक चेतना और उसके मूल्यों का पता उसके ग्रंथों से चलता है। रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथ, रसात्मक वाक्यों के माध्यम से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पुरुषार्थों को अभिव्यक्त करते हैंप्राचीन आचार्यों ने ग्रंथ को केवल एक लंबी रचना नहीं माना, बल्कि उसे महान उद्देश्यों से जोड़ा: प्रयोजन: मम्मट भट्ट के अनुसार, काव्य (ग्रंथ) का प्रयोजन यश, अर्थ, व्यवहार ज्ञान और सबसे बढ़कर परिनिर्वृत्ति (परम आनंद) देना है। एक महान ग्रंथ को इन सभी प्रयोजनों को सिद्ध करना चाहिए। तुलनात्मक शैली (सूत्र व भाष्य): संस्कृत में सूत्र-शैली (पाणिनि का व्याकरण) ने अक्षर-संक्षेप के साथ गाम्भीर्य को साधा है।
प्राकृत और संस्कृत की कथा-शैली (जैसे कालिदास का साहित्य या गाथासप्तशती) ने वाक्य विस्तार और कल्पना-प्रवणता के माध्यम से रस का गहरा संचार किया। ग्रंथ की शैली कैसी भी हो, उसमें अक्षर की शुद्धता और वाक्य की रसात्मकता का सामंजस्य अनिवार्य माना गया है। भारतीय साहित्यशास्त्र ने अक्षर को आध्यात्मिक आधार, शब्द को दार्शनिक शक्ति, वाक्य को कलात्मक प्राण (रस), और ग्रंथ को सभ्यता का मूर्त रूप प्रदान किया है। पतंजलि से लेकर विश्वनाथ तक, समस्त चिंतन इस बात पर केंद्रित रहा है कि भाषा की इकाई, चाहे वह प्राकृत की सहजता में हो या संस्कृत की शुद्धता में, उसका अंतिम लक्ष्य परम-अर्थ और परम-आनंद की अभिव्यक्ति है। यही कारण है कि भारतीय आचार्यों ने अक्षर को अविनाशी मंत्र घोषित किया, जिससे शब्द, रसात्मक वाक्य, और अंततः ग्रंथ के रूप में मानव चेतना का उच्चतम उत्कर्ष संभव हुआ।
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