दीपावली
बाहरी नहीं, भीतरी प्रकाश की खोज में ....
✍️ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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चांदी पहुंचा चांद पर, सोना पहुंचा स्वर्ग,
मानव का चंचल मन, ढूंढता क्यों विसर्ग?
भौतिकता की रौशनी में, खोया आत्मा का स्वर,
दीप जले बाहर पर, भीतर का अंधकार प्रखर।
मैं ढूंढता रहा अर्थ, शब्दों के भीतर छुपे रंग में,
पर भाव छूटते गए,चपलता की दीप्त तरंग में।
झलकता सिर्फ़ चेहरा,जो समय का दर्पण है,
जिसने साधा है मौन, वही सच्चा समर्पण है।
व्यापारी का उत्सर्ग, ग्राहक को मिलता नर्क,
लेन-देन ही जीवन है, या व्यर्थ है सब तर्क।
हर पर्व के पीछे छुपा, कोई अंतस का विलाप,
कहीं हँसी में रोता मन, कहीं दीपक भी ताप।
धन की देवी के पथ पर, भूख मांगती भीख,
क्या लक्ष्मी वहीं जाती,जहाँ झूठ की रीति ठीक?
दीप जलाओ-पर पहले, मन का तम हर लो,
बाहर बैठी माया, भीतर की आग को वर लो।
दीपोत्सव प्रतीक है, आत्मा की उजास का,
न कि केवल पटाखों और पैसों के प्रकाश का।
बाहरी नहीं, भीतरी प्रकाश की खोज में,
हो दीपों का त्योहार परिवार संग मौज में।
दीपावली की शुभकामनाएँ !
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