एक विद्वान की पहचान
🖋️ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"विद्वान अब कहाँ रहे वे,
जो ज्ञान को साधना मानें,
आजकल तो शब्द बेचकर,
अपने दाम बढ़ाना जानें।
ना भावनाएँ, ना विचार,
ना कोई मौलिक सोच,
बस कॉपी-पेस्ट के खेल में,
बन बैठे हैं विद्वान चोख ।।
किताबें पढ़ते कम हैं,
उठाते औरों की बात,
'गूढ़ तत्व' चुराकर कहें,
लो देखो मेरी सौगात।
विचार नहीं, व्यापार है,
होता भाषा की सौदा,
जहाँ मिल जाए "श्री तत्व",
वहीं पर दिखाते ओदा।
गले में माला, मंच पे शोभा,
बस चाहें दर्शक से ताली,
मंच न मिले तो बुद्धि का,
खजाना, हो जाती खाली।
दरवाजे पर ज्ञान लुटाएँ,
यह है पुरानी परंपरा,
विद्वता अब महफिलों की नहीं,
बन गई दिमागी जरा।
अरे! विद्वान वो नहीं जो
दिखाए ज्ञान की शान,
विद्वान वो जो न बोले,
पर दे दे नई पहचान।
ना लोलुपता, ना दिखावा,
ना पद ना ही पैसों का बटुआ,
जो समाज को दिशा दिखाए,
वही सच्चा समाज का अगुआ।
🙏🙏
कह दो इन नकली विद्वानों से...
चुराए ज्ञान से, विद्वता नहीं आती,
श्रद्धा, तप, और सच्ची साधना ही पहचान बनती।
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