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"स्त्री — अमृत भी, विष भी"

"स्त्री — अमृत भी, विष भी"

 ✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र"राकेश"
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                 1.
 स्त्री अमृत है, अगर सहेजे,
    तो उसका प्यार मिले,
 रिश्तों में और फूल खिलेंगे,
  जब मधुर व्यवहार मिले।
माँ की ममता, बहन की बाँहें,
     पत्नी की मुस्कान,
उसका मन प्रफुल्लित हो तो,
    बन जाती है भगवान।।
                  2.
  सबकी थाली पहले परोसें,
    खुद खाए आधी रोटी,
बिन कहे सबका दर्द समझ ले,
   सास हो या ननद छोटी।
   अपनी इच्छाएँ बाँधें वो, 
     सपनों को सी लेती,
पर अपमानित हो रोज अगर,
    तो चुप्पी भी ची लेती।।
                  3.
   वो भी मन की बातें चाहे,
      मिले थोड़ी सराहना,
पर जब सुनवाई न हो उसकी,
     देती है फिर उलहाना।
 तब बनती है विष की धारा,
     आँसू जल बन जाए,
जो सहती रही, वही एक दिन,
 दिल में भरा ज़हर छलकाए।
                4.
कभी बने वो घर की लक्ष्मी,
     कभी हो आफ़त,
कभी सुधा, कभी कटु वाणी,
       खुद हो इबादत।
  उसके स्वर में शांति भी है,
        और तांडव भी,
वो सीता है और द्रौपदी का,
       द्वंद्वमय स्वर भी।।
                  5.
  बोओ फूल, तो फूल देगी,
       काँटे दोगे, काटे,
वो प्रकृति है — जैसा दो तुम,
      फिर वैसा ही बाँटे।
अमृत भी है, विष भी है वो,
      देखो नज़रें साफ़,
जिसने उसको समझ लिया,
 हो, उसका जीवन माफ़।
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