"अपनों का सच"
✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
मुझे अपनों ने मारा,
गैरों में कहां दम था,
अपनी कश्ती वहां डूबी,
जहां पानी कम था।
मुझे हर मोड़ पर ठोकर,
अपनों की ही लगी,
हर चेहरे पे नकाब था,
पहचान की कमी थी।
जहां उम्मीद थी उजाले की,
वहीं अंधेरा मिला,
जिसे समझा था अपना,
उसी ने दिल से खेला।
कभी हंसी में छिपा ताना,
कभी खामोश वार था,
अपनों की बेरुखी ही,
सबसे बड़ा श्रृंगार था।
ना शिकवा है, ना शिकायत
अब किसी से बाकी है,
जो दर्द मिला अपनों से,
वो ही मेरी कहानी है।
अब सीखा है मुस्कुराना,
हर चोट को सीने में लिए,
कहने का अपना है सब,
जिंदा हूं अपना किस्मत लिए।


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