लहज़ा: संबंधों का निर्माता या विध्वंसक
“शब्द की धार लहज़े से ही सँवरती है—लहज़ा वरदान बने तो वचन सफल, और अभिशाप बने तो संबंध विफल।” यह लोकोक्ति हमें स्मरण कराती है कि वाणी का वास्तविक प्रभाव शब्दों में नहीं, अपितु उनके उच्चारण-शैली और स्वर-संयम में निहित है। कोमल और विनम्र लहज़ा कठोरतम सत्य को भी सहज ग्राह्य बना देता है, जबकि कटु वाणी साधारण कथन को भी दाहक बाण में रूपांतरित कर सकती है। लहज़ा केवल ध्वनि का उतार-चढ़ाव नहीं, बल्कि आंतरिक भावभूमि का प्रतिबिंब है, जो श्रोता के मन में सहानुभूति अथवा दुराग्रह उत्पन्न करता है।
संवाद तभी सार्थक होता है जब उसमें संयम, शिष्टता और सहृदयता का समावेश हो। असंयत स्वर संबंधों को विफल कर देता है, वहीं सजग और मधुर लहज़ा उन्हें पुष्ट करता है। अतः यदि विषय महत्त्वपूर्ण है, तो उसका लहज़ा उससे भी महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि विनम्र वाणी जहाँ जीवन को सुवासित करती है, वहीं कठोर वाणी संबंधों की मधुरता को विषाक्त कर देती है।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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