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"स्त्री की आत्मा और संरचना"

"स्त्री की आत्मा और संरचना"

स्त्री की आत्मा
अनादि से गा रही है—
"मैं शून्य भी हूँ,
मैं सृष्टि भी।
मैं जल की धार भी हूँ,
मैं अग्नि का ताप भी।
मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की व्याख्या हूँ।"


पर समाज—
अपने स्थापत्य में,
ईंट-पत्थरों और नियमों की दीवारों में
उसे बाँधकर कहता है—
"तेरा घर यहाँ नहीं।
तेरे लिए स्थान केवल
पिता की चौखट,
पति की दहलीज़,
पुत्र की छाया है।"


संरचना की भाषा
नियम, धर्म और परम्परा से
बुनी जाती है—
जिसमें स्त्री
कभी पुत्री,
कभी वधू,
कभी माता कहलाती है,
पर स्वयं नहीं।


आत्मा प्रतिवाद करती है—
"मैं क्यों उधार के नामों में जीऊँ?
मेरी शिराओं में जो चेतना है,
वह किसी के अधीन नहीं।
मैं अपनी ही दिशा की स्वामिनी हूँ।
मैं अपनी ही छाया की अधिष्ठात्री हूँ।"


किन्तु समाज—
अपने गहन व्यूहजाल में,
ज्ञान के भ्रमित चक्रों में,
हर बार नए मुखौटे गढ़ लेता है।


और इस संघर्ष में—
नारी की आत्मा
बार-बार कुचली जाती है,
फिर भी मरती नहीं।
वह पुनः उठती है,
राख से फीनिक्स बनकर,
संरचना की आँखों में
प्रश्न बनकर खड़ी हो जाती है—


"कब निर्मित होगा वह गृह,
जहाँ मैं केवल मैं रहूँ,
न किसी की परिभाषा,
न किसी का परिशिष्ट?"


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"
✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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