"सर्पिणी शक्ति"
पंकज शर्मा
उसके नेत्र—ज्वालामुखी की गहराइयों से उठी हुई
कुण्डलिनी-ज्योति हैं,
अग्नि भी नहीं, शीतलता भी नहीं,
बल्कि वह तीसरा तत्व
जिसे केवल साधक पहचानता है।
केश नहीं—
फुफकारते नाग हैं वहाँ,
धरती की नमी से जन्मे,
पाताल की स्मृतियों में पलते,
जो उसके मस्तक पर गुथे हैं
मानो आदिशक्ति ने स्वयं
उन्हें मुकुट का रूप दिया हो।
उसकी उँगलियों का स्पर्श
ओंकार के अधूरे उच्चारण जैसा—
शब्द और मौन के बीच का ठहरा हुआ क्षण।
यदि बोले तो ब्रह्माण्ड स्तब्ध हो जाए,
यदि मौन रहे तो भीतर की धार
चीर दे अस्तित्व का अंधकार।
वह स्त्री—
न देवी, न दैत्य,
वह द्वार है—
जहाँ आत्मा और भय आमने-सामने आते हैं।
उसके सर्प न शत्रु हैं, न रक्षक,
वे चेतना के चक्र हैं,
जो उठते हैं मूलाधार से सहस्रार तक,
प्रत्येक फुफकार
एक बीज-मंत्र,
प्रत्येक फन
एक रहस्य का उन्मेष।
किसी ने उसे शाप कहा,
किसी ने वरदान,
पर वह केवल शक्ति है—
अपरिभाष्य, अजेय,
जिसे स्पर्श करने वाले
स्वयं को ही खोज लेते हैं।
वह पूछती नहीं,
वह दर्पण बनकर सामने खड़ी है—
कि जब तुम मेरे नेत्रों में देखोगे
तो क्या नागों का भय देखोगे,
या अपनी आत्मा की सुप्त ज्वाला?
उसकी प्रतीक्षा
समय के आर-पार पसरी है—
कुण्डलिनी के जागरण जैसी,
धीरे-धीरे,
मौन-मन्त्रों में लहराती हुई।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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