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भारतीय राजनीति: एक सर्कस, एक नाटक, या कुछ और?

भारतीय राजनीति: एक सर्कस, एक नाटक, या कुछ और?

सत्येन्द्र कुमार पाठक।
आज़ादी के बाद से, भारतीय राजनीति एक ऐसा मंच बन गई है, जहाँ हर दिन एक नया नाटक होता है और जनता तालियाँ बजाने के लिए मूकदर्शक बनी रहती है। हमारे नेताओं ने हमें दिखाया है कि राष्ट्रवाद, विकासवाद, और समाजवाद जैसे भारी-भरकम शब्द सिर्फ चुनावी भाषणों में ही अच्छे लगते हैं। असल में, ये सभी तो बस चुनावी सर्कस के कलाकार हैं, जो जनता को अलग-अलग करतब दिखाकर वोट बटोरते हैं। राजनीति की इस 'आधुनिक' धारा में, धर्म और जाति को ऐसे हथियार बनाया गया है, जैसे ये ही हमारे देश की सबसे बड़ी पहचान हैं। 'माय', 'दम', 'कम' और 'भुराबाल' जैसे नारों ने हमारे समाज को ऐसे टुकड़ों में बाँट दिया है कि अब ये सिर्फ चुनावों के दौरान ही नहीं, बल्कि हर दिन की बहस का हिस्सा बन गए हैं। नेताजी कहते हैं, "हमें 'परवल' (पंडित, राजपूत, बभजन, लाला) को चबाना है" और हम ताली बजाते हैं, यह भूलकर कि हम खुद भी इसी 'सलाद' का हिस्सा हैं।
विकास और रोजगार की बातें अब पुरानी हो चुकी हैं। अब तो असली मुद्दा यह है कि कौन सा नेता दूसरे नेता को कितनी बुरी तरह से गालियाँ देता है, कौन राम को अपना बताता है और कौन कृष्ण को। मंदिरों पर कटाक्ष करना, देवी-देवताओं पर टिप्पणी करना, यह सब अब 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का हिस्सा बन गया है। राजनीति की इस 'नई दुनिया' में, आरक्षण, न्याय और चुनाव आयोग भी अब चुनावी खेल का हिस्सा बन गए हैं। वोट चोरी और ईवीएम हैकिंग जैसे आरोपों के बीच, जनता यह सोचने लगी है कि क्या वोट देना भी अब एक मज़ाक बन गया है? हमारे नेता, जो कभी विकास और राष्ट्रवाद के लिए नारे लगाते थे, अब जातिवाद, परिवारवाद, और अपराधवाद के संरक्षक बन गए हैं। और हम, इस महान सर्कस के दर्शक, बस देखते रहते हैं। हम सोचते हैं कि अब कोई राम या कृष्ण आएंगे और इस 'अधर्म' का अंत करेंगे। लेकिन, हमें यह समझना होगा कि ये कोई त्रेतायुग या द्वापर नहीं है। यह कलयुग है और यहाँ चाणक्य भी राजनीति के दलदल में फंस जाते हैं। बिहार विधानसभा 2025 का चुनाव आने वाला है। जनता सोच रही है कि क्या यह चुनाव विकास और रोजगार पर लड़ा जाएगा, या फिर वही पुराने मुद्दे- 'माय', 'दम', 'कम' और 'वोटचोरी' का शोरगुल होगा। शायद हम, भारत के लोग, एक ऐसे सिनेमा हॉल में बैठे हैं जहाँ फिल्म चल रही है और हम पॉपकॉम खाते हुए सिर्फ मूकदर्शक बनकर देख रहे हैं। क्या हम सिर्फ पॉपकॉम खाते रहेंगे या फिल्म का क्लाइमेक्स बदलेंगे?
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