“तर्कजाल और सत्यसार”
मानव जीवन के अनेक कर्म सहजता से सम्पन्न हो सकते हैं, परन्तु जब हम उन्हें तर्क की कसौटी पर कसने लगते हैं तो वे जटिल और असाध्य प्रतीत होने लगते हैं। इसका कारण यह है कि तर्क का मूलाधार सदैव अहंभाव पर टिका रहता है। अहं आत्मा की निर्मल चेतना पर आवरण डालकर उसे सीमित कर देता है। सत्य अपनी स्वाभाविक सरलता में सहज उपलब्ध है, परन्तु अहं द्वारा आरोपित तर्क उसे काटने वाले कुठार के समान है, जो वृक्ष की छाल को चीर देता है परंतु उसके रस का स्वाद कभी नहीं जान पाता।
सत्य को पाने का मार्ग हृदय की निष्कलुष सहजता से प्रशस्त होता है, न कि बुद्धि के कृत्रिम विवेचन से। जब मनुष्य अहंकार के शास्त्र-विचार से ऊपर उठकर स्वयं को प्रकृति के साथ एकाकार करता है, तभी वह जीवन के गूढ़तम रहस्यों को जान पाता है। तर्क केवल शब्द-जाल रचता है, किंतु सहजता आत्मा को सत्य की ओर प्रवाहित करती है। इसीलिए जीवन में प्रगति का सच्चा पथ तर्क-वितर्क नहीं, अपितु निर्मल अंतःकरण की सहज स्वीकार्यता है।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार) पंकज शर्मा
(कमल सनातनी)
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