नशा विपरीत शान
तेरे श्वसा में ही नशा है ,या नशा में ही श्वसा है ।
नशा विपरीत ये शान है ,
नशा रग रग में बसा है ।।
क्या तुम्हीं हो नशा के ,
या नशा ही तुम्हारी है ?
कितने सड़ गए किडनी ,
क्या तुम्हारी ही बारी है ?
नशा करना ही जरूरी है ,
कर अधिक जीने की ।
जीवन पे अधिकार कहाॅं ,
लत लगाए हो पीने की ।।
भारत में तुम जन्म लिए ,
भारत हेतु तुम जन्मे हो ।
त्यागे भारतीय सभ्यता ,
क्या इसीलिए जन्मे हो ?
तेरा जीवन तेरे हेतु नहीं ,
परिवार समाज राष्ट्र की ।
नशे में तुम सूर बने हो ,
औलाद बने धृतराष्ट्र की ।।
नशा करना शान नहीं है ,
शान होता नशामुक्ति में ।
पूच्छविहीन पशु हुए हो ,
खोकर तो देख सूक्ति में ।।
नशामुक्त हो तेरा जीवन ,
नशामुक्त होगा ये भारत ।
भारत तुमपे वारा निजको ,
क्यों न तू निज को वारत ।।
नशा में तू भक्ति अपना ले ,
भक्ति से मिलेगी ये शक्ति ।
ईशभक्ति या राष्ट्रभक्ति कर ,
उस नशे से हो तेरा विरक्ति ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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