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भारत की शिक्षा व्यवस्था : स्वतंत्रता के बाद भी कॉन्वेंट और मदरसे क्यों, परन्तु प्राचीन गुरुकुल क्यों नहीं?:-डॉ. राकेश दत्त मिश्र

भारत की शिक्षा व्यवस्था : स्वतंत्रता के बाद भी कॉन्वेंट और मदरसे क्यों, परन्तु प्राचीन गुरुकुल क्यों नहीं?:-डॉ. राकेश दत्त मिश्र

भारत केवल एक भूगोल का नाम नहीं है, यह एक जीवंत संस्कृति और आध्यात्मिक परंपरा का प्रतीक है। यहाँ का मूल तत्व “विद्या” है। हमारे शास्त्रों ने शिक्षा को जीवन का प्राण कहा—

“विद्या ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वात्धनमाप्नोति, धनात्धर्मं ततः सुखम्॥”

अर्थात् विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से धन और धन से धर्म तथा सुख की प्राप्ति होती है।

भारत की पहचान कभी राजनीति या अर्थशास्त्र से नहीं, बल्कि शिक्षा और संस्कृति से हुई। यही कारण है कि पूरी दुनिया भारत को “विश्वगुरु” कहती थी। नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, वल्लभी, कांची, उज्जैन जैसे विश्वविद्यालयों में हज़ारों विद्यार्थी विश्वभर से आते थे। यहाँ की शिक्षा केवल ज्ञानार्जन नहीं, बल्कि जीवन निर्माण का साधन थी।

लेकिन 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपेक्षा थी कि भारत फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटेगा। गुरुकुल परंपरा का पुनरुद्धार होगा। किंतु हुआ उल्टा। आज़ादी के 78 साल बाद भी देश में लाखों कॉन्वेंट स्कूल और हज़ारों मदरसे फल-फूल रहे हैं, जबकि प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था विलुप्तप्राय है। यह प्रश्न प्रत्येक जागरूक भारतीय के हृदय को मथता है कि—

  • जब अंग्रेज़ चले गए तो कॉन्वेंट क्यों बचे?
  • जब धर्म के आधार पर विभाजन हुआ और पाकिस्तान बन गया, तो भारत में मदरसे क्यों जारी रहे?
  • और, क्यों गुरुकुल जैसी भारतीय शिक्षा परंपरा को पुनर्जीवित नहीं किया गया?

हमने इस आलेख में इन्हीं प्रश्नों की गहन पड़ताल की है —ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, संवैधानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से क्या है ।

1. भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था : गुरुकुल परंपरा

भारतीय शिक्षा व्यवस्था का मूल गुरुकुल था।

गुरु-शिष्य संबंध – शिक्षा गुरु के आश्रम में दी जाती थी। शिष्य वहीं रहकर गुरु की सेवा करते, और जीवन के प्रत्येक पक्ष का ज्ञान प्राप्त करते।

समग्र शिक्षा – केवल वेद-पाठ नहीं, बल्कि गणित, खगोल, आयुर्वेद, राजनीति, शस्त्र-शास्त्र, दर्शन, संगीत, कला आदि सबका अध्ययन होता।

चरित्र निर्माण – शिक्षा का उद्देश्य नौकरी नहीं, बल्कि “पुरुषार्थ चतुष्टय” (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति था।

आर्थिक स्वतंत्रता – गुरुकुल समाज द्वारा पोषित होते थे। धनी वर्ग और राजा उनका संरक्षण करते थे।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं—

“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥” (गीता 4.34)

अर्थात् ज्ञान प्राप्ति हेतु गुरु के पास जाओ, प्रश्न करो, सेवा करो और गुरु से सत्य का उपदेश पाओ।

यही गुरुकुल परंपरा भारत को विश्वगुरु बनाती थी।

2. विदेशी आक्रमण और शिक्षा व्यवस्था पर प्रभाव

मुस्लिम आक्रमणों ने भारतीय शिक्षा प्रणाली पर गहरा आघात किया। नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय जलाकर नष्ट कर दिए गए।

इसके बाद भी गुरुकुल और तोल (संस्कृत पाठशालाएँ) जीवित रहे।

परंतु धीरे-धीरे राजनीतिक संरक्षण कम होता गया।

फिर आए अंग्रेज़। उन्होंने समझा कि भारत को गुलाम बनाने का सबसे बड़ा उपाय उसकी शिक्षा प्रणाली को बदलना है।

3. अंग्रेज़ों की शिक्षा नीति : मैकॉले का षड्यंत्र

1835 में लॉर्ड मैकॉले ने ब्रिटिश संसद में कहा—

“हमें ऐसे भारतीय चाहिए जो रंग-रूप से भारतीय हों परंतु विचारों से अंग्रेज़ हों।”

इसके लिए—

गुरुकुलों और संस्कृत पाठशालाओं को अनुपयोगी घोषित किया गया।

अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल शुरू किए गए।

मिशनरी संस्थाओं को कॉन्वेंट स्कूल खोलने की छूट दी गई।

शिक्षा का उद्देश्य बना—क्लर्क और नौकरशाह तैयार करना।

परिणाम – भारतीय समाज का एक नया वर्ग बना जिसे “बाबू वर्ग” कहा गया। यही वर्ग बाद में सत्ता और प्रशासन में प्रभावशाली हुआ।

4. स्वतंत्र भारत और शिक्षा की विडंबना

1947 में आज़ादी के बाद उम्मीद थी कि भारत अपनी शिक्षा प्रणाली को भारतीय परंपरा पर आधारित करेगा। लेकिन हुआ उल्टा।

जवाहरलाल नेहरू पश्चिमी दृष्टिकोण से प्रभावित थे। उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा को ही आधुनिकता का प्रतीक माना।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (पहले शिक्षा मंत्री) ने मदरसों को संरक्षण दिया।

मिशनरी कॉन्वेंट स्कूलों को और अधिक मान्यता मिली।

यानी, स्वतंत्र भारत की शिक्षा नीति अंग्रेज़ों की बनाई हुई ही बनी रही।

5. संविधान और शिक्षा

संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार और समान अवसर से जोड़ा गया। लेकिन इसकी व्याख्या “धर्मनिरपेक्षता” के नाम पर विकृत हुई।

अनुच्छेद 28 – राज्य किसी धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य नहीं करेगा।

अनुच्छेद 29-30 – अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा का अधिकार।

अनुच्छेद 45 व 46 – बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा, कमजोर वर्गों को विशेष संरक्षण।

परिणाम यह हुआ कि—

मिशनरी और मदरसों को “अल्पसंख्यक अधिकार” के नाम पर संरक्षण मिला।

परंतु गुरुकुलों को सांप्रदायिक मानकर अनदेखा किया गया।

6. शिक्षा आयोग और नीतियाँ

  • कोठारी आयोग (1964-66) – भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा की सिफारिश की, लेकिन लागू नहीं हुई।
  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 – मातृभाषा में शिक्षा पर बल दिया, पर अंग्रेज़ी का वर्चस्व बना रहा।
  • शिक्षा नीति 1986 – “सर्व शिक्षा अभियान” चला, पर कॉन्वेंट का प्रभाव और बढ़ा।
  • नई शिक्षा नीति 2020 – पहली बार “भारतीय ज्ञान परंपरा, संस्कृत और बहुभाषी शिक्षा” पर जोर दिया गया।
  • यह आशा की किरण है, परंतु अभी इसका वास्तविक क्रियान्वयन शेष है।

7. कॉन्वेंट स्कूल क्यों बने रहे?

  • अंग्रेज़ी शिक्षा को “रोज़गार” और “प्रतिष्ठा” से जोड़ा गया।
  • उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग ने अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों में भेजा।
  • सरकार ने भी इन्हें प्रोत्साहन दिया।
  • धीरे-धीरे कॉन्वेंट शिक्षा स्टेटस सिंबल बन गई।

8. मदरसे क्यों बने रहे?

  • विभाजन के बाद भी भारत में करोड़ों मुसलमान रहे।
  • उन्होंने अपने धार्मिक संस्थानों (मदरसे) को बनाए रखा।
  • संविधान के अनुच्छेद 29-30 ने उन्हें विशेष अधिकार दिए।
  • राज्यों ने अनुदान देना शुरू किया (विशेषकर यूपी, बिहार, बंगाल, असम)।
  • मदरसों में केवल कुरान-हदीस पढ़ाई जाती है, आधुनिक शिक्षा सीमित।

9. गुरुकुल क्यों नहीं पुनर्जीवित हुए?

  • राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव – नेताओं ने इसे प्राथमिकता नहीं दी।
  • धर्मनिरपेक्षता का विकृतिकरण – गुरुकुलों को “हिंदू शिक्षा” कहकर उपेक्षित किया गया।
  • समाज की उदासीनता – शिक्षित वर्ग ने कॉन्वेंट को ही श्रेष्ठ मान लिया।
  • आर्थिक संसाधनों की कमी – गुरुकुलों को सरकारी अनुदान नहीं मिला।
  • पश्चिमी मानसिकता – अंग्रेज़ी को आधुनिकता और विज्ञान की भाषा माना गया।

10. परिणाम : शिक्षा की मानसिक दासता

  • छात्र शेक्सपियर और मिल्टन जानते हैं, पर वाल्मीकि और वेदव्यास नहीं।
  • अंग्रेज़ी में दक्ष, पर मातृभाषा में असहज।
  • मदरसों से पढ़े छात्र आधुनिक जीवन से कटे।
  • भारतीय संस्कृति से दूर होकर पश्चिमी उपभोक्तावाद को अपनाया।
  • गुरुकुलों की अनुपस्थिति से चरित्र निर्माण की शिक्षा समाप्त हो गई।

11. न्यायालय के कुछ निर्णय

  • केशवानंद भारती केस (1973) – संविधान की मूल संरचना में “धर्मनिरपेक्षता” को जोड़ा।
  • सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात (1974) – अल्पसंख्यकों को शिक्षा संस्थान चलाने की स्वतंत्रता दी।
  • तिरुनेलवेली मदरसा केस – मदरसों को सरकारी संरक्षण मिला।
  • इन सबने गुरुकुलों के पुनरुद्धार में अप्रत्यक्ष बाधा डाली।

12. समाधान : गुरुकुल परंपरा का पुनरुद्धार

  • नई शिक्षा नीति का क्रियान्वयन – भारतीय ज्ञान प्रणाली, संस्कृत, योग, आयुर्वेद को मुख्य धारा में लाना।
  • गुरुकुलों को मान्यता और अनुदान – जैसे कॉन्वेंट और मदरसों को मिलता है।
  • आधुनिक गुरुकुल मॉडल – जहाँ वेदांत, शास्त्र, संस्कृत के साथ विज्ञान, गणित, तकनीक भी पढ़ाई जाए।
  • समाज का सहयोग – संपन्न वर्ग को गुरुकुलों के निर्माण में योगदान देना।
  • राष्ट्रीय गौरव की भावना – शिक्षा का उद्देश्य नौकरी नहीं, बल्कि जीवन निर्माण होना चाहिए।

निष्कर्ष

  • भारत ने 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की, पर शिक्षा में स्वतंत्रता अभी अधूरी है।
  • कॉन्वेंट स्कूल बच्चों को अंग्रेज़ियत सिखाते हैं।
  • मदरसे धार्मिक संकीर्णता में बांधते हैं।
  • गुरुकुल, जो भारतीयता और सनातन संस्कृति की आत्मा हैं, उपेक्षित हैं।
  • जब तक भारत गुरुकुलों को पुनर्जीवित नहीं करेगा, तब तक वास्तविक स्वतंत्रता अधूरी रहेगी।


गीता का यह श्लोक भारत के लिए मार्गदर्शक है—

“स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥” (गीता 3.35)

अर्थात् अपने धर्म और परंपरा पर टिके रहना ही श्रेष्ठ है, दूसरों की नकल करना विनाशकारी है।

इसलिए, भारत को गुरुकुल परंपरा का पुनरुद्धार करना ही होगा। तभी हम फिर से विश्वगुरु बन सकेंगे।

🕉️ “गुरुकुल पुनः स्थापित होंगे, तभी भारत अपनी आत्मा से जुड़कर विश्व का नेतृत्व करेगा।”

✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्र

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