समुद्र-मन्थन का आध्यात्मिक रहस्य
कमलेश पुण्यार्क
समुद्र-मन्थन की प्रसिद्ध पौराणिक कथा से परिचित अवश्य होंगे—सौतेले-मौसेरे भाई महर्षि कश्यप की सन्तानें—देव, दानव, दैत्यादि अपने-अपने वर्चश्व और अधिकारों के लिए प्रायः आपस में जूझते ही रहते थे। किसी न किसी बहाने इनके बीच युद्ध होते ही रहता था। विविध शस्त्रास्त्रों से भीषण युद्ध होगा तो किसी न किसी का मरना तय है। किसी एक पक्ष का पराजय भी तय है।
अपनों के मत्यु से दुःखी देवगण ने विचार किया कि किसी तरह हमें अमरत्व मिल जाता तो बड़ा अच्छा होता। किन्तु इसके लिए, जो उद्योग करना पड़ेगा, वह अकेले सम्भव नहीं है, दैत्य-दनुजों का साथ भी अपरिहार्य है।
ऐसे में समस्या ये खड़ी हुई कि संयुक्त प्रयास से प्राप्त होने वाले अमरत्व की व्यवस्था में वे यानी देवों के शत्रु दैत्यादि भी भागीदार अवश्य हो जायेंगे। प्रयास संयुक्त होगा, तो अमरता भी संयुक्त ही होगी । यानी वे भी अमर हो जायेंगे। परिणामतः स्थिति ज्यों की त्यों बनी रह जायेगी, बल्कि इससे भी विकट ही हो सकती है।
कहने को देवता हैं, किन्तु बड़े ही स्वार्थान्ध हैं, कुटिल विचार वाले तो हैं ही। युक्ति ये बनी कि समुद्र-मन्थन के समय वासुकीनाग के पूँछ भाग में देवगण लगें और मुख भाग में दैत्यगण। मन्थन जनित उष्मा और विषवमन से बहुत से दैत्य मन्थन-काल में ही काल-कवलित हो जायेंगे। शेष जो बचेंगे उनसे किसी तरह निपट लिया जायेगा।
संयुक्त रूप से मन्थन प्रारम्भ हुआ। ‘हलाहल’ की आपदा तो शिव ने झेल ली। मृत्युञ्जय को भला मृत्यु से क्यों भय! अमृतपान के विवाद का निपटारा सर्व पालनहार विष्णु ने मनमोहिनी रूप धारण करके किया। समुद्र-मन्थन से प्राप्त अमृत का पान सिर्फ निज पक्ष को कराया।
इस रोचक कथा का आध्यात्मिक पक्ष किंचित् विचारणीय और मननीय है। सत्त्व-रज-तम की त्रिगुणात्मिका सृष्टि से किसी एक गुण विशेष को हम बिलकुल अलग नहीं कर सकते, नकार नहीं सकते। शुद्ध सत्त्व से सृष्टि कदापि सम्भव नहीं है। इसके लिए रज और तम भी अनिवार्य है। सत्व-रज-तम के परस्पर संघात से ही तत्वों का सृजन होता है। तत्व से तन्मात्राएं सृजित होती हैं। तन्मात्रों से इन्द्रियाँ आविर्भूत होती है। फिर इन इन्द्रिय समूह का संचालन मन के द्वारा होता है। अर्थात इन्द्रियों का राजा है मन। मन के साथ ही बुद्धि और अहंकार भी उद्भुत होते है। ये इसके सहयोगी हैं।
इन्द्रियों के राजा इस मन को ही समझने-समझाने और नियन्त्रित करने की आवश्यकता है। “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः”— बन्धन और मोक्ष दोनों का कारण ये मन ही है। मन ही वह वासुकीनाग है, जो पूरे जगत् को डसे हुए है। अपनी वासनाओं के विष से मूर्छित किए हुए है। इसका मुख बहिर्मुखी वृत्तियों वाला है और पूँछ अन्तर्मुखी वृत्तियों वाला। दैवी सम्पदा अन्तर्मुखी वृत्तियों से लब्ध होती है और आसुरी सम्पदा हेतु बहिर्मुखी वृत्तियाँ जिम्मेदार हैं।
एक ओर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सरादि अनेक आसुरी वृत्तियाँ हैं हमारे अन्दर, तो दूसरी ओर करुणा, दया, प्रेम आदि दैवी सद्वृत्तियाँ भी हैं, जो परस्पर स्पर्द्धा पूर्वक अपनी ओर खींचती रहती हैं अनवरत मानव मन को। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वर-प्रणिधान (यम-नियमादि) द्वारा मन की वृत्तियों को संतुलित- नियन्त्रित करने की आवश्यकता है।
श्वास-प्रश्वास रूपी रस्सी से सुदृढ़ सुषुम्णा की मथानी में मन के वासुकी को संलग्नकर, तानकर, बाँध कर, सरकाकर ध्यान रूपी आत्ममन्थन का निरन्तर अभ्यास करना है।
ध्यातव्य है कि मन्थन-कालिक प्रारम्भिक विष-वमन का किंचित् कष्ट तो झेलना ही पड़ेगा। मन्थन के अभ्यास-क्रम में अमृत हठात् नहीं निकलेगा, प्रत्युत मन्थन के परिणाम स्वरूप पहले बहिर्मुखी सांसारिक वृत्तियों का विषवमन होगा। शिव कृपा से जब उनका नाश होगा, तब बड़ी कठिनाई से, बहुत प्रयास के पश्चात् अन्तर्मुखी दैवी वृत्तियों की सम्यक् स्थापना हो पायेगी।
ध्यातव्य है कि अवस्थिति तो है ही, स्थापना नहीं है। आसुरी प्रवृत्तियाँ जबतक रहेंगी, तबतक मन बाह्य संसार (भौतिकता) में ही विचरण-रमण करता रहेगा। किन्तु जैसे-जैसे अन्तर्मुखी स्वच्छ सद्वृत्तियों का स्थापन क्रमिक रूप से होने लगेगा, आन्तरिक, अन्तरात्मिक, आध्यात्मिक खोज प्रारम्भ हो जायेगी। दुःखों से उद्विग्न न होना और सुखों की स्पृहा का त्याग करना ही तो स्थितप्रज्ञता का लक्षण है। ये आत्मज्ञान ही अमृत की उपलब्धि है और वाह्य भौतिक ज्ञान मात्र विषवत है। भौतिकता का प्रायः उपयोग आत्मविनाश हेतु ही हो सकता है, जबकि आध्यात्मिकता का उपयोग परम सुख-शान्ति-आनन्द की ओर अग्रसर कराने में सक्षम है। भौतिकता क्षणिक सुख भले ही दे दे, आत्यन्तिक सुख वहाँ है ही नहीं। यही कारण है कि वहिर्मुखी वृत्ति सदा अमृतत्व से वंचित रहती है और अन्तर्मुखी वृत्ति की परिणति अविनाशी अमृतत्व ही है।
अस्तु।
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