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नेतृत्व का आकलन करते समय मतदाता उम्र को नहीं देखते

नेतृत्व का आकलन करते समय मतदाता उम्र को नहीं देखते

लेखक - श्री अशोक मलिक

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 75वें जन्मदिन के जश्न के दौरान, बीजेपी और व्यापक संघ परिवार में कथित "आयु सीमा" नियम को लेकर अटकलें तेज़ हो गईं। मीडिया और राजनीतिक सुगबुगाहटों में लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों के संन्यास की ओर इशारा किया गया। आलोचकों ने पूछा कि मोदी के साथ अलग व्यवहार क्यों किया जाना चाहिए।
ये सभी अच्छे सवाल हैं। जन्मदिन समारोह संबंधी संवादों में, प्रतिक्रियाएँ तीखी और स्पष्ट थीं। वे तथ्यों और राजनीतिक रुझानों के बजाय, किसी न किसी रूप में, राजनीतिक धारणाओं से प्रभावित थीं। अब यह महत्वपूर्ण जन्मदिन हमारे पीछे छूट गया है, लेकिन एक सुविचारित विश्लेषण आवश्यक है। इसमें अंतरराष्ट्रीय और भारत में आधुनिक राजनीतिक संस्कृतियों के साथ-साथ मोदी के व्यक्तिगत रिकॉर्ड का अध्ययन शामिल है।
1990 के दशक में राजनीतिक संचार और प्रतीकवाद में एक उल्लेखनीय बदलाव देखा गया। शीत युद्ध के अंत के साथ, एक नई आशा, तेज आर्थिक वृद्धि और व्यापक व्यावसायिक एवं नागरिक समाज स्वायत्तता के बीच, राजनीति को एक तकनीकी या संबंधित गतिविधि के रूप में स्वीकार करने की भावना पैदा हुई। यह, निश्चित रूप से, पश्चिम के लिए सबसे अधिक सत्य था। फिर भी, जैसा कि अपेक्षित था, इसका प्रभाव अन्य लोकतंत्रों में भी कहीं अधिक व्यापक रूप से महसूस किया गया।
इसके परिणामों में एक आयुवादी पंथ भी शामिल था, जिसने सरकार में युवाओं को एक साध्य के रूप में बढ़ावा दिया। इसने राजनेता की वास्तविक साख पर अपेक्षाकृत कम ज़ोर दिया, जो ज़रूरी नहीं कि उसकी उम्र से जुड़ा हो। उदाहरण के लिए, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका में, यदि कोई व्यक्ति बहुत ही कम और बिल्कुल हास्यास्पद आयु सीमा पार कर जाता था, तो उसे निर्वाचित होने योग्य माना जाना मुश्किल था।
कुछ उदाहरण लेते हैं। अमेरिका में, बिल क्लिंटन ने अपना दूसरा कार्यकाल 54 वर्ष की आयु में, जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने 62 वर्ष की आयु में और बराक ओबामा ने 55 वर्ष की आयु में पूरा किया। बेशक, कार्यकाल सीमा ने तीसरे कार्यकाल को रोक दिया, लेकिन बड़ी बात यह है कि एक अधिक उम्र के प्रतिद्वंद्वी के लिए पार्टी प्राइमरी भी जीतना असंभव था। राजनीतिक प्रतिभाओं की एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो गई या उनका करियर तब खत्म हो गया जब योगदान देने के लिए अभी भी बहुत कुछ बचा था। ब्रिटेन थोड़ा अलग था। टोनी ब्लेयर 54 साल की उम्र में सेवानिवृत्त हुए, जबकि कैमरन ने 49 साल की उम्र में और ऋषि सुनक ने 44 साल की उम्र में 10 डाउनिंग स्ट्रीट छोड़ दी।
सार्वजनिक जीवन में वैसे भी कार्यकारी प्रतिभाएँ सीमित होती हैं। इसे विधायिका और सरकार में वर्षों के अनुभव से आने वाली परिपक्वता के साथ मिलाएँ, तो पता चलता है कि कैसे पश्चिम ने टेलीविज़न-अनुकूल, मीडिया-चालित युवा उन्माद का शिकार होकर नेतृत्व को बर्बाद कर दिया।
धीरे-धीरे, ब्रिटेन और अमेरिका ने भी अपना रुख सही किया। 1997 और 2013 के बीच, कार्यकाल की शुरुआत में अमेरिकी राष्ट्रपति की औसत आयु 52 वर्ष थी। 2017 और 2025 के बीच, यह बढ़कर 75 वर्ष हो गई। 79 वर्ष की उम्र में, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप क्लिंटन के बराबर और ओबामा से डेढ़ दशक बड़े हैं। ब्रिटेन में, कीर स्टारमर ने 61 वर्ष की उम्र में पदभार संभाला। वे ब्लेयर से सात वर्ष बड़े थे, जबकि ब्लेयर पूरे एक दशक तक प्रधानमंत्री रहने के बाद सेवानिवृत्त हुए थे।
स्पष्ट रूप से, जैसे-जैसे राजनीतिक अर्थव्यवस्था अधिक जटिल और चुनौतीपूर्ण हो रही है, मतदाता सरकार को अलग तरह से देखने लगे हैं। वे नेताओं में जिन कौशलों की तलाश करते हैं, उनमें उम्र के प्रति उदासीनता स्पष्ट दिखाई पड़ती है। दूसरे शब्दों में, युवा उतनी महत्वपूर्ण प्राथमिकता नहीं है। एक कुशल, दृढ़ नेतृत्व, जिसमें वैचारिक (यहाँ तक कि सैद्धांतिक) आधार हो, अधिक मायने रखता है और उम्र को अपेक्षाकृत कम महत्त्व दिया जाता है।
भारत में, कई प्रधानमंत्री कथित आयु-सीमा को पार करने के बाद भी कहीं अधिक प्रभावी रहे हैं। पी.वी. नरसिम्हा राव सत्तर साल से अधिक के थे, जब उन्होंने 1991 के वित्तीय सुधारों के माध्यम से देश को दिशा दी। मोदी के पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह ने 81 वर्ष तक शासन किया। आज भी, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे या एनसीपी के शरद पवार अस्सी वर्ष से अधिक की आयु में भी केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं।
बीजेपी का इतिहास भी इसे प्रतिबिंबित करता है। 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी ने 79 वर्ष की आयु में पुनः निर्वाचित होने के लिए चुनाव प्रचार किया और 84 वर्ष की आयु तक संसद में रहे। आडवाणी ने अस्सी वर्ष से अधिक आयु तक लगातार अभियान चलाकर पार्टी को आगे बढ़ाया और अंततः 91 वर्ष की आयु में अपनी संसदीय पारी समाप्त की। मुरली मनोहर जोशी ने 85 वर्ष की आयु में अपने कार्यकाल के अंत तक प्रभावशाली संसदीय समितियों का नेतृत्व किया तथा शिक्षा और ऊर्जा पर बहस को आकार दिया।
2014 में भी परिवर्तन का कारण बीजेपी की आयु का नियम नहीं था, बल्कि मोदी को मिले बड़े जनादेश को बेहतर ढंग से प्रतिबिंबित करने के लिए पार्टी का पुनर्गठन किया जा रहा था औए यह एक पीढ़ीगत परिवर्तन था। यह कभी भी बिना विवेक के लागू किया जाने वाला यांत्रिक सूत्र नहीं था। इसलिए मूल बात उम्र नहीं, बल्कि क्षमता और योग्यता है। अपने कथित रूप से अधिक आयु के होने के बावजूद, मोदी ने 2024 के तीन महीने के चुनाव अभियान के दौरान 200 से ज़्यादा जनसभाओं को संबोधित किया। इस दौरान ज़्यादातर दिनों में, अत्यधिक गर्मी के बावजूद तीन या चार भाषणों के बाद, वे सरकारी बैठकों, नीतिगत समीक्षाओं और निर्णय लेने के लिए दिल्ली वापस आ जाते थे। संक्षेप में, वे इस काम के लिए तैयार थे – और हैं।
राजनीतिक रूप से दीर्घायु होना, शारीरिक शक्ति से कहीं अधिक होता है। अपनी पीढ़ी के सबसे प्रतिभाशाली और बौद्धिक रूप से चुस्त राजनेता के रूप में, मोदी की लोकप्रियता की कुंजी उनका प्रशंसनीय और निरंतर विकास है। वे किसी भी उद्देश्य के लिए खुद को उपयुक्त बनाने के क्रम में स्वयं को फिर से प्रशिक्षित करते हैं। उनकी नीतिगत सलाह, नागरिकों की आकांक्षाओं और आग्रहों के साथ उनका निरंतर जुड़ाव, उनकी बाहरी जुड़ाव की रणनीति, उनके आर्थिक आवेग: वे अभी भी भारत में सबसे समकालीन राजनीतिक सूझ-बूझ वाले राजनेता हैं।
अलग-अलग विषयों पर दूसरे लोग ज़्यादा जानते होंगे, लेकिन एक पूरे पैकेज के तौर पर क्षितिज पर कोई और नहीं है – यहाँ तक कि उनसे सालों बाद पैदा हुए लोग भी नहीं। फिनटेक से लेकर सेमीकंडक्टर तक, उभरती तकनीक से लेकर व्यापार समझौतों में महत्वाकांक्षा तक, वह इस क्षेत्र में सबसे युवा नहीं हैं, लेकिन निश्चित रूप से अपनी सोच में सबसे आधुनिक हैं। यही वजह है कि भारतवासियों का उन पर भरोसा कायम है। ऐसे में, किसी राजनीतिक करियर और मोदी की स्थायी अपील का सिर्फ़ शारीरिक उम्र के आधार पर आकलन करना न सिर्फ़ अनुचित है, बल्कि अवास्तविक भी है। मतदाताओं की पसंद उम्र-तटस्थ होती है।
....लेखक द एशिया ग्रुप के पार्टनर और भारत में इसके अध्यक्ष हैं। विचार निजी हैं।
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