Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

चुनाव या व्यापार? राजनीति में पैसों का खेल और लोकतंत्र की चुनौती

चुनाव या व्यापार? राजनीति में पैसों का खेल और लोकतंत्र की चुनौती

डॉ. राकेश दत्त मिश्र

लोकतंत्र को अक्सर जनता की शक्ति और उसकी आवाज़ कहा जाता है। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने इसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाने का सपना देखा था। चुनावों को उन्होंने इस व्यवस्था की आत्मा माना—जहाँ जनता अपने प्रतिनिधि को चुनकर शासन की दिशा तय करती है। परंतु आज स्थिति यह है कि चुनाव सेवा और विचारधारा का मंच कम, और धनबल के प्रदर्शन का अखाड़ा अधिक बनते जा रहे हैं। विशेषकर बिहार जैसे राज्य में, जहाँ सामाजिक-राजनीतिक चेतना अत्यंत गहरी है, वहां चुनावों में पैसों का बेहिसाब प्रवाह देखकर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लोकतंत्र की असली आत्मा कहीं खो तो नहीं गई?

भारत में चुनावी राजनीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य


स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राजनीति का मूल आधार त्याग, सेवा और आदर्शवाद था। महात्मा गांधी से लेकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं ने राजनीति को सामाजिक परिवर्तन का साधन बनाया। चुनाव लड़ने का खर्च भी नगण्य होता था।

लेकिन स्वतंत्रता के बाद जैसे-जैसे राजनीति सत्ता और संसाधनों से जुड़ती गई, वैसे-वैसे चुनावों में पैसों की भूमिका बढ़ने लगी। 1960 के दशक तक चुनाव खर्च पर नियंत्रण अपेक्षाकृत आसान था, पर 1970 के बाद से धनबल, बाहुबल और जातिगत समीकरण राजनीति के स्थायी घटक बन गए। चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्च सीमा एक औपचारिकता रह गई और असल खेल "अनौपचारिक चैनलों" से चलने लगा।

बिहार का वर्तमान चुनावी परिदृश्य


बिहार की राजनीति हमेशा से राष्ट्रीय पटल पर प्रभावी रही है। यहां की जनता विचारधारा और सामाजिक न्याय के प्रश्नों पर सजग रही है। लेकिन वर्तमान समय में जब कोई नई पार्टी चुनाव की तैयारी करती है और अचानक शहर से लेकर गांव तक पोस्टरों, बैनरों, भव्य रैलियों और महंगे प्रचार अभियानों की बाढ़ ला देती है, तो जनता स्वाभाविक रूप से पूछती है—"इतना पैसा कहां से आ रहा है?"

यही विसंगति है—नेता मंच से राजनीतिक स्वच्छता और पारदर्शिता का दावा करते हैं, और दूसरी ओर चुनाव प्रचार में पैसा पानी की तरह बहाते हैं।


चुनावी फंडिंग और पारदर्शिता का अभाव


चुनाव आयोग ने प्रत्याशी के खर्च की सीमा तय की है—परंतु यह सिर्फ कागजों तक सीमित रहती है। वास्तविकता में खर्च उसकी कई गुना अधिक होता है। चुनावी फंडिंग की सबसे बड़ी समस्या पारदर्शिता का अभाव है।
काले धन का उपयोग – बड़ी मात्रा में नकद लेन-देन होता है, जो किसी भी हिसाब में दर्ज नहीं होता।
कॉर्पोरेट फंडिंग – बड़ी कंपनियां अपने हित साधने के लिए दलों को चुपचाप चंदा देती हैं।
इलेक्टोरल बॉण्ड – पारदर्शिता के नाम पर लाया गया यह तंत्र भी विवादों से घिरा रहा, क्योंकि दानदाता की गुमनामी बनी रहती है।
स्थानीय प्रभावशाली वर्ग का योगदान – व्यापारियों, ठेकेदारों और बाहुबलियों की भागीदारी से चुनाव खर्च असामान्य रूप से बढ़ जाता है।

इस स्थिति ने लोकतंत्र को एक असमान खेल बना दिया है, जिसमें ईमानदार और साधनहीन उम्मीदवार अपनी योग्यताओं के बावजूद पीछे छूट जाते हैं।

राजनीति बनाम व्यापार


राजनीति का उद्देश्य सेवा होना चाहिए, लेकिन जब चुनाव जीतने का अर्थ करोड़ों रुपये का निवेश हो, तो राजनीति "व्यापार" में बदल जाती है। निवेशक (उम्मीदवार) चुनाव जीतने के बाद "लाभ" कमाने की कोशिश करता है। यह लाभ कभी ठेकेदारी के जरिए, कभी भ्रष्टाचार के माध्यम से और कभी सरकारी पदों के दुरुपयोग से निकाला जाता है।

इस प्रवृत्ति के कारण—
राजनीति सेवा से सौदेबाज़ी की ओर बढ़ रही है।
जनप्रतिनिधि जनता के प्रति नहीं, बल्कि अपने वित्तीय हितों के प्रति अधिक जवाबदेह हो जाता है।
जनता का विश्वास लोकतंत्र से उठने लगता है।


जनता की भूमिका

लोकतंत्र में सबसे बड़ी शक्ति जनता के पास होती है। यदि मतदाता नोटों के बंडल या तात्कालिक आकर्षण में आकर वोट बेचते हैं, तो वे अपने ही भविष्य को गिरवी रखते हैं। लोकतंत्र की मजबूती जनता के विवेक में है, न कि नेताओं की झूठी घोषणाओं में।

बिहार की जनता ने अतीत में कई बार परिवर्तनकारी निर्णय लेकर पूरे देश को दिशा दिखाई है। आज फिर आवश्यकता है कि जनता पैसों के प्रभाव को नकारे और उन उम्मीदवारों को चुने जो विचार, ईमानदारी और कार्यक्षमता पर खरे उतरते हों।


चुनाव सुधार की आवश्यकता

भारत में चुनावी सुधार की चर्चा दशकों से होती रही है, लेकिन अब यह अनिवार्यता बन चुकी है।
राजनीतिक फंडिंग में पूर्ण पारदर्शिता – हर पार्टी और प्रत्याशी को अपने आय-व्यय का ऑनलाइन सार्वजनिक ब्यौरा देना चाहिए।
खर्च की कड़ी निगरानी – चुनाव आयोग को वास्तविक समय में खर्च की जांच के लिए आधुनिक तकनीकी उपकरण उपलब्ध कराए जाएं।
इलेक्टोरल बॉण्ड की समीक्षा – इसे पारदर्शी बनाने के लिए दानदाता की पहचान भी जनता के सामने रखी जाए।
जन-जागरूकता अभियान – मतदाताओं को समझाया जाए कि वोट बिकाऊ नहीं है।
आदर्श राजनीति की मिसालें – नेताओं को अपने व्यक्तिगत आचरण से साबित करना होगा कि राजनीति सेवा है, व्यापार नहीं।
चुनाव फंडिंग पर सीमा – पार्टियों के कुल खर्च पर भी कठोर सीमा तय की जाए, न कि सिर्फ प्रत्याशियों पर।

लोकसभा + विधानसभा चुनाव 2024 — कुल खर्च

विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा 2024 के लोकसभा और कुछ राज्यों की विधानसभा चुनावों में लगभग ₹1,00,000 करोड़ के आस-पास खर्च होने का अनुमान लगाया गया है। Drishti IAS+2Commonwealth Human Rights Initiative+2

पार्टी-वार खर्च, 2024

• BJP ने लगभग ₹1,494 करोड़ खर्च किया, जो कुल चुनावी खर्च का ~44.56% है।
• कांग्रेस ने लगभग ₹620 करोड़ खर्च किए। The Times of India+2MyNeta+2

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 — सरकार पार्टी खर्च

• BJP ने ~ ₹71.72 करोड़ खर्च किए।
• कांग्रेस ने ~ ₹30.38 करोड़,
• JD(U) ने ~ ₹22.65 करोड़ खर्च किए। The Times of India+1

चुनावी खर्च सीमा (प्रत्याशी स्तर)

• विधानसभा चुनाव (बड़े राज्यों) में प्रत्याशी की खर्च सीमा ~ ₹40 लाख।
• लोकसभा चुनाव के लिए ~ ₹90 लाख। The Times of India+2Drishti IAS+2

राजनीतिक दलों द्वारा फंड इकट्ठा करना और श transparency का मुद्दा

• “Electoral Bonds” योजना में बड़े दान अज्ञात तरीकों से हो रहे।
• ADR के मुताबिक, 2004-05 से 2014-15 के बीच राष्ट्रीय व राज्य पार्टियों की कुल आय का लगभग 69% हिस्सा उन स्रोतों से आता है जहाँ योगदानकर्ता की पहचान नहीं होती (अधिकतर छोटे-छोटे योगदान या अज्ञात दान स्रोत)। Wikipedia

पार्टी-व्यय की प्रमुख श्रेणियाँ (2024)

ADR के विश्लेषण के अनुसार (लोकसभा + चार विधानसभा चुनावों के लिए):
• सार्वजनिकता (publicity) में सबसे अधिक खर्च हुआ (~53%)
• यात्रा (travel)
• उम्मीदवारों को दिया गया “lump sum” भुगतान
• सोशल मीडिया / वर्चुअल प्रचार की बढ़ती भूमिका

· खर्च सीमा की सीमाएँ (Limits being symbolic rather than effective):
 – प्रत्याशी स्तर की खर्च सीमाएँ निर्धारित हैं, लेकिन दलों द्वारा प्रचार, मीडिया विज्ञापन, “publicity-materials” आदि पर लाखों-करोड़ों में खर्च की रिपोर्ट या सार्वजनिक बजट अक्सर उस सीमा से कहीं ऊपर हो जाती है।

· पारदर्शिता की खामियाँ:
 – “Electoral Bonds” जैसे तंत्र ने दान दाताओं के नाम छुपाकर राजनीतिक फ़ंडिंग को अज्ञात और कम जवाबदेह बना दिया। <br> – राजनीतिक दलों के व्यय विवरण जमा करने की देरी, या कुछ दलों द्वारा विवरण ही प्रकाशित न करना, इस बात का संकेत है कि सिर्फ़ कानूनी औपचारिकताएँ पूरी की जा रही हैं न कि वास्तविक पारदर्शिता।

· भारी खर्च और राजनीति का व्यापार-ीकरण:
 – जब एक पार्टी जैसे BJP ₹1,494 करोड़ खर्च कर सकती है, दूसरे दलों की तुलना में व्यापक संसाधन लगा सकती है, तो “आदर्शवादी उम्मीदवार” जिनके पास इतना धन नहीं है, उनका मैदान सिकुड़ जाता है।

· जनहित और लोकतंत्र पर असर:
 – इतने बड़े पैसों का निवेश होने के बाद राजनीतिक प्रतिनिधि को जनता के प्रति ज़िम्मेदारी उपयुक्त नहीं हो सकती यदि वह धन स्रोतों में पारदर्शी नहीं है। यह आर्थिक और सामाजिक असमानता को बढ़ाता है।
बिहार 2015 चुनाव के आकडे |

1. एमएलए-संपत्तियों की वृद्धि

o 2015 में पुनः चुनाव लड़ने वाले 160 MLAs की औसत संपत्ति (2010 में) लगभग ₹86.41 लाख थी, जो 2015 में बढ़कर ₹2.57 करोड़ तक हो गई। ADR India

o RJD के MLAs ने सबसे अधिक औसत संपत्ति (≈ ₹3.8 करोड़) दिखायी। ADR India

2. करोड़पति MLAs की संख्या

o 243 सदस्यों में से 162 (≈ 67%) MLAs करोड़पति थे— यानी उनकी संपत्ति ₹1 करोड़ से अधिक। Business Standard+1

o उनमें से 14 MLAs तो उन हैं जिनकी संपत्ति ₹10 करोड़ से भी ऊपर थी। The Sentinel

3. आपराधिक मामले और शैक्षिक पृष्ठभूमि

o 2015 में चुने गए MLAs की संख्या में से ≈58% ने अपने निर्वाचन हलफनामे में आपराधिक मामले (pending criminal cases) घोषित किए थे। The Times of India+1

o बेहतर शिक्षा-स्तर भी बढ़ा हुआ है; अधिकांश MLAs “स्नातक या उससे ऊपर” की शिक्षा वाले हैं। The Times of India

4. राजकीय चुनाव-व्यय (State Exchequer) खर्च

o बिहार विधानसभा चुनाव 2015 के संचालन पर राज्य ने लगभग ₹300 करोड़ खर्च किए। The Times of India+1

o इसमे प्रमुख खर्च थे: वाहनों का उपयोग, ईंधन, बूथों की व्यवस्था, तम्बू-बैरियरिंग, सुरक्षा और चुनाव दस्तावेज़ों की मुद्रण आदि। The Times of India

5. राजधानी दलों द्वारा राजस्व-आय और चुनाव खर्च

o राजनीतिक दलों ने 2015 के विधानसभा चुनावों में कुल ₹150.99 करोड़ व्यय किया। The Wire+1

o इसमें BJP का खर्च सबसे अधिक था: लगभग ₹103.76 करोड़। The Wire

o बयान-विभाजन (publicity), यात्रा (travel) आदि पर बहुत खर्च हुआ: प्रचार (publicity) में लगभग ₹74.97 करोड़ लगाया गया। Live Hindustan+1

6. उम्मीदवारों की संपत्ति और जीतने की प्रवृत्ति

o जिन उम्मीदवारों ने चुनाव जीता, उनकी औसत संपत्ति लगभग ₹3.02 करोड़ थी। https://www.oneindia.com/+1

o विभिन्न दलों के विजेताओं की औसत संपत्ति: RJD ~ ₹5.92 करोड़, कांग्रेस ~ ₹5.18 करोड़, JD(U) ~ ₹4.17 करोड़, BJP ~ ₹3.56 करोड़। https://www.oneindia.com/

· पैसों की बढ़ती शक्ति: संपत्ति के इस तरह के विश्लेषण से स्पष्ट है कि राजनीति अब सिर्फ लोकप्रियता और विचारधारा का मुकाबला नहीं, आर्थिक शक्ति का भी है।

· असमान शुरुआत: करोड़पति उम्मीदवारों का बढ़ता अनुपात और नई-नवेली पार्टियों के उम्मीदवारों की अपेक्षित संसाधन सीमाएँ इसके संकेत हैं कि धन शक्ति चुनावी मैदान को असमान बना देती है।

· राजनीतिक दलों का खर्च: BJP द्वारा ₹103.76 करोड़ व्यय और कुल संपत्तियों की स्थिति यह दिखाती है कि प्रचार-प्रसार एवं मीडिया/यात्रा आदि पर किस तरह बहुत कुछ खर्च होता है जो सामान्य प्रत्याशी के लिए सम्भव नहीं।

· लोकतंत्र-उपयोग और जनता की अपेक्षाएँ: जब राजनीतिक प्रतिनिधियों की औसत संपत्ति करोड़ों में हो, और उनमें से कई  के ऊपर आपराधिक मामले भी दर्ज हों, तो जनता को यह जानना चाहिए कि वे किन आधारों पर उम्मीदवार चुन रहे हैं।
बिहार 2020: सांकृतिक आंकड़े और रिपोर्ट

1. प्रत्याशियों के खर्च की सीमा
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में प्रत्याशी खर्च की सीमा ₹30.80 लाख निर्धारित की गई थी। ADR India+1

2. प्रत्यक्ष खर्च विवरणों का विश्लेषण (MLAs)

o कुल 243 सीटों में से 240 विजेताओं की खर्च रिपोर्ट ADR ने विश्लेषित की। ADR India

o इनमें से लगभग 47% MLAs ने निर्धारित सीमा का 50% से कम खर्च किया। ADR India

o औसत खर्च लगभग ₹15.72 लाख रहा, जो कि निर्धारित सीमा का करीब 51% है। ADR India

3. दलों द्वारा खर्च की स्थिति
ADR रिपोर्ट के अनुसार मुख्य पार्टियों का विदा-भविष्य इस प्रकार रहा:

o BJP ने बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में लगभग ₹71.72 करोड़ खर्च किए और 74 सीटें जीतीं। The Times of India

o कांग्रेस ने लगभग ₹30.38 करोड़ खर्च किया और 19 सीटें जीतीं। The Times of India

o JD(U) ने लगभग ₹22.65 करोड़ खर्च किए और 43 सीटें जीतीं। The Times of India

4. खर्च के घटक (Subheads)
खर्च के मुख्य हिस्से निम्नलिखित रहे:

o पर्यटन / यात्रा (Travel expenses)

o प्रचार / पब्लिसिटी (Publicity)

o उम्मीदवारों को दिए जाने वाले “लम्प-सम” (lump sum) भुगतान The Times of India

o “लम्प-सम” में कांग्रेस ने लगभग ₹17.92 करोड़, BJP ने ₹16.56 करोड़ और JD(U) ने ₹11.75 करोड़ का भुगतान किया। The Times of India

5. प्रारम्भिक साक्ष्य और पारदर्शिता संबंधी निकृष्टताएँ

o कई राजनीतिक दलों ने चुनाव संभावित मामलों के लिए आवश्यक फंड जुटाने / खर्च का पूरा विवरण चुनाव आयोग की वेबसाइट पर अपलोड नहीं किया। ADR India+1

o प्रत्याशी द्वारा जमा किये जाने वाले खर्च विवरण (expenditure statements) कुछ मामलों में समय के बाद या देरी से प्रकाशित हुए। ADR India

6. · प्रतिमान तुलना: उदाहरण के लिए, जब आप “राजनीतिक दल नए प्रचार-प्रसार में अव्यावहारिक बड़े खर्च करते हैं” का दावा करें, तो BJP-Congress-JD(U) के ₹71.72 / 30.38 / 22.65 करोड़ खर्च का उल्लेख कर सकते हैं। साथ ही यह दिखाएँ कि प्रत्याशियों ने निर्धारित सीमा (₹30.80 लाख) का केवल आधा-आधा खर्च किया है—इससे संकेत मिलता है कि खर्च का बड़ा हिस्सा दलों/केन्द्रीय इकाइयों से प्रचार/यात्रा/पब्लिसिटी में जा रहा है।

7. · पारदर्शिता की कमी के तर्क को मजबूत करने के लिए यह उपयोगी है कि कुछ दलों ने विवरण नहीं जमा किया या प्रकाशित नहीं किया।

8. · लोकतंत्र एवं असमानता के तर्क में यह जोड़ सकते हैं कि इतने बड़े खर्च के साथ संसाधन-अल्प उम्मीदवारों का मुकाबला करना कठिन हो जाता है।

निष्कर्ष

मैं पिछले 15 वर्षों से सक्रिय राजनीति में हूं और मेरा अनुभव कहता है कि पैसा खर्च कर चुनाव लड़ना राजनीति नहीं, व्यापार है। राजनीति की असली ताकत विचारों, संगठन और जनसमर्थन में है, न कि पैसों की चकाचौंध में।

लोकतंत्र तभी जीवंत रहेगा, जब राजनीति सेवा का माध्यम बने, न कि व्यवसाय का। जनता का विश्वास और प्रतिनिधियों की निष्ठा ही इस व्यवस्था की असली पूंजी है। अतः आज आवश्यकता है कि हम सब मिलकर इस प्रश्न पर गंभीर विमर्श करें—क्या हम राजनीति को सेवा का पवित्र मार्ग बनाए रखना चाहते हैं, या इसे पूंजी और लाभ का सौदा बनने देना चाहते हैं? भविष्य का लोकतंत्र इसी प्रश्न के उत्तर पर निर्भर करता है।

हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews #Divya Rashmi News, #दिव्य रश्मि न्यूज़ https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ