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सनातन धर्म में पितृ पक्ष, श्राद्ध और कर्मों का महत्व

सनातन धर्म में पितृ पक्ष, श्राद्ध और कर्मों का महत्व

सत्येन्द्र कुमार पाठक
सनातन धर्म, जिसे हम आज हिंदू धर्म के नाम से जानते हैं, एक ऐसा मार्ग है जो हमें न केवल ईश्वर से जोड़ता है, बल्कि हमारे पूर्वजों और आने वाली पीढ़ियों के साथ हमारे संबंधों को भी परिभाषित करता है। यह धर्म हमें सिखाता है कि हम अकेले नहीं हैं, बल्कि एक विशाल परिवार का हिस्सा हैं जिसमें हमारे पूर्वज भी शामिल हैं। पितृ पक्ष इसी भावना को साकार करने का एक महत्वपूर्ण समय है। यह 15 दिनों की अवधि (अश्विन कृष्ण प्रतिपदा से अश्विन अमावस्या तक) होती है जब हम अपने पितरों (पूर्वजों) के प्रति अपनी श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करते हैं। यह दुःख की बात है कि कई बार इस महत्वपूर्ण काल को केवल "हिंदी भाषी लोगों" का एक अनुष्ठान मान लिया जाता है, जबकि यह संपूर्ण सनातन धर्मियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह समय हमें एकजुट होने और अपने पूर्वजों को याद करने का अवसर देता है, न कि अलग होने का।
पितृ पक्ष के दौरान, हम अपने पूर्वजों के लिए श्राद्ध करते हैं। 'श्राद्ध' शब्द 'श्रद्धा' से बना है, जिसका अर्थ है श्रद्धापूर्वक किया गया कार्य। यह एक ऐसा अनुष्ठान है जिसमें हम अपने पितरों की आत्मा की शांति और उनके मोक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं। इस दौरान, हम अपने पूर्वजों के प्रिय भोजन को शाकाहारी रूप में पकाकर ब्राह्मणों, गरीबों और जरूरतमंदों को खिलाते हैं। इस प्रसाद को सभी को बिना किसी भेदभाव के देना चाहिए। जैसा कि गरुड़ पुराण में कहा गया है, "कोई भी प्रसाद भगवान की दया और आशीर्वाद है और सभी मानव जाति के लिए उनके लिंग, रंग और पंथ की परवाह किए बिना उपलब्ध है।" यह एक आम गलत धारणा है कि श्राद्ध में कुछ विशेष व्यंजन ही बनाए जाते हैं। जबकि, हमें अपने पूर्वजों को जो पसंद था, उसे श्रद्धापूर्वक पकाना चाहिए, बशर्ते वह शाकाहारी हो। मांस, मांस आदि को इस दौरान वर्जित माना जाता है। गरुड़ पुराण के श्लोकों से यह स्पष्ट होता है कि श्राद्ध के कुछ विशेष घटक क्यों महत्वपूर्ण हैं:गरुड़ पुराण प्रेत खण्ड (अध्याय 29, श्लोक 15-17) में कहा गया है कि तिल भगवान के पसीने से उत्पन्न हुए हैं और इसलिए अत्यंत पवित्र हैं। इन्हें बुरी शक्तियों, जैसे असुरों, दानवों और राक्षसों को दूर भगाने वाला माना गया है। तिल का दान शरीर द्वारा किए गए पापों को नष्ट करता है और तर्पण (पानी अर्पित करना) में इनका उपयोग हमेशा के लिए लाभप्रद होता है।दरभा (कुश) घास: श्लोक 18-20 में कहा गया है कि कुश घास भगवान के बालों से उत्पन्न हुई है। इसकी जड़ों में ब्रह्मा, बीच में केशव (विष्णु), और सिरे पर शंकर (शिव) विराजमान हैं। इस प्रकार, कुश घास में त्रिदेवों का वास है, जो इसे किसी भी पवित्र संस्कार के लिए अनिवार्य बनाता है।नमक: गरुड़ पुराण च 2 श्लोक 30-32 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि नमक भगवान विष्णु के शरीर से निकला है और यह पापों का नाश करने में अत्यंत प्रभावी है। यह भी कहा गया है कि नमक का दान स्वर्ग का द्वार खोलता है। यह उस आम भारतीय धारणा के विपरीत है कि नमक का दान करने से दुर्भाग्य आता है। यह एक स्पष्ट उदाहरण है कि कैसे वर्षों से हम बिना सोचे-समझे कुछ अंधविश्वासों का पालन करते आ रहे हैं। हमें इन शास्त्रों में वर्णित तथ्यों पर विश्वास करना चाहिए और बिना किसी संकोच के नमक का दान करना चाहिए।
श्रीमद्भागवत 3.6.30 में ऋषि मैत्रेय बताते हैं कि अग्नि-देव भगवान का मुख हैं। जब हम अग्नि में भोजन अर्पित करते हैं, तो वह सीधे भगवान को समर्पित होता है, जिसके बाद वह भोजन प्रसादम बन जाता है। इस युग (कलियुग) में, यह प्रसादम हमारे लिए एक एंटीसेप्टिक की तरह काम करता है, जो जीवन की कठिनाइयों को दूर करने में सहायक है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि अग्नि-देवता अन्य देवताओं के लिए दूत का काम करते हैं, और उनके माध्यम से किया गया कोई भी बलिदान सभी देवी-देवताओं तक पहुंचता है।
सनातन धर्म में श्राद्ध के अधिकार को लेकर अक्सर यह भ्रम फैलाया जाता है कि केवल पुरुष ही यह कर्म कर सकते हैं। हालांकि, यह पूरी तरह से गलत है। जैसा कि आपके द्वारा साझा किए गए पाठ में स्पष्ट रूप से कहा गया है, "नर या मादा भोजन और तर्पण तब तक दे सकते हैं, जब तक वह अर्पित किया जाता है।" हिंदू धर्म एक लिंगभेदी धर्म नहीं है।
यदि किसी व्यक्ति का कोई पुत्र नहीं है, तो उसकी पुत्री भी अपने माता-पिता के लिए श्राद्ध कर सकती है। यदि वह विवाहित भी है, तो भी वह तर्पण के समय अपने माता-पिता का नाम ले सकती है। यह दिखाता है कि इस धर्म में प्रेम, कर्तव्य और श्रद्धा को लिंग से ऊपर रखा गया है।
गरुड़ पुराण का पाँचवाँ अध्याय, "पापचिह्ननिरूपण", हमारे कर्मों के फल पर गहनता से प्रकाश डालता है। यह अध्याय कर्म और उसके परिणामों के बीच सीधे संबंध को स्थापित करता है। यह हमें बताता है कि हमारे द्वारा किए गए हर छोटे-बड़े पाप का फल हमें अवश्य भोगना पड़ता है, चाहे वह इस जन्म में हो या अगले जन्म में।महापातक (ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरु पत्नी के साथ गमन): ये सबसे बड़े पाप हैं, जिनका फल नारकीय यातनाएं भोगने के बाद विभिन्न निम्न योनियों (गधा, ऊँट, कुत्ता, कीट, पतंग आदि) में जन्म लेकर मिलता है।अन्य पाप: छोटे-छोटे पाप जैसे झूठी गवाही देना, गुरु का अपमान करना, चोरी करना आदि भी विभिन्न शारीरिक विकारों (कोढ़, लंगड़ापन, बहरापन, गंजापन) और पशु-पक्षियों की योनियों (चूहा, बिच्छू, चींटी, बंदर) में जन्म का कारण बनते हैं।यह अध्याय हमें सिखाता है कि हमारे कर्म ही हमारे भविष्य का निर्माण करते हैं। यह हमें एक नैतिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है, जहाँ हम न केवल बड़े पापों से बचें, बल्कि छोटी-छोटी बुराइयों से भी दूर रहें।गरुड़ पुराण में यह भी बताया गया है कि कई जन्मों तक विभिन्न योनियों में कष्ट भोगने के बाद, जब हमारे पुण्य और पाप बराबर हो जाते हैं, तब हमें मनुष्य योनि मिलती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि हम अपने कर्मों का फल नहीं भोग लेते।
गरुड़ पुराण और अन्य धर्मग्रंथों में पुत्र को श्राद्ध का अधिकार देने का एक विशिष्ट कारण है, जिसे आचार्य वसिष्ठ और मनु महाराज ने समझाया है।पुत्र: 'पु' नामक नरक से 'त्र' (त्राण) करने वाला, यानी रक्षा करने वाला, इसलिए 'पुत्र' कहलाता है। यह माना जाता है कि पुत्र के श्राद्ध और पिंडदान से पिता 'पु' नामक नरक से मुक्त हो जाते हैं।पारिवारिक दायित्व: पुत्र होने पर व्यक्ति लोकों को जीत लेता है, पौत्र होने पर अनंतता को प्राप्त होता है, और प्रपौत्र होने पर सूर्य लोक को प्राप्त करता है। यह एक प्रकार का पारिवारिक दायित्व है, जहाँ ज्येष्ठ पुत्र को मुख्य रूप से श्राद्ध का कार्य सौंपा गया है। हालांकि, यह समझना महत्वपूर्ण है कि यदि कोई पुत्र नहीं है, तो शास्त्रों में पत्नी, भाई, दामाद और यहाँ तक कि पुत्री को भी श्राद्ध करने का अधिकार दिया गया है। यह दिखाता है कि धर्म का मुख्य उद्देश्य पितरों का मोक्ष है, न कि किसी लिंग विशेष का अधिकार।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गरुड़ को सुनाई गई सीता और श्रीराम की कथा यह सिद्ध करती है कि श्राद्ध में किए गए भोजन को पितर स्वयं आकर ग्रहण करते हैं। इस कथा में, देवी सीता ने श्राद्ध के लिए आमंत्रित ब्राह्मणों के बीच अपने ससुर राजा दशरथ और अन्य पूर्वजों को राजसी वेशभूषा में देखा। यह देखकर सीता लज्जित होकर छिप गईं, क्योंकि वे स्वयं साधारण वल्कल और मृगचर्म धारण किए हुए थीं। यह कथा स्पष्ट करती है कि पितर सूक्ष्म रूप में श्राद्ध में उपस्थित होते हैं और उनके लिए किया गया भोजन और तर्पण सीधे उन्हें प्राप्त होता है।यह कथा हमें यह भी सिखाती है कि श्राद्ध सिर्फ एक कर्मकांड नहीं है, बल्कि एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने पूर्वजों के प्रति अपनी श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करते हैं। यह एक ऐसा आध्यात्मिक अनुभव है जो हमें अपने मृत प्रियजनों के साथ जोड़ता है।सनातन धर्म एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक रूप से गहन धर्म है। पितृ पक्ष, श्राद्ध और अन्य अनुष्ठान हमें जीवन के गहरे सत्यों से जोड़ते हैं। यह हमें सिखाते हैं कि हमारे कर्मों का फल अवश्य मिलता है, कि हम अपने पूर्वजों से जुड़े हुए हैं, और कि श्रद्धा और प्रेम लिंग या जाति से परे हैं। यह हमारा कर्तव्य है कि हम इन अनुष्ठानों को उनके सही अर्थ और उद्देश्य के साथ समझें। हमें अंधविश्वासों को छोड़ देना चाहिए और शास्त्रों में दिए गए वास्तविक ज्ञान पर भरोसा करना चाहिए। पितृ पक्ष हमें अपने परिवार, अपनी संस्कृति और अपने आध्यात्मिक मार्ग से फिर से जुड़ने का अवसर प्रदान करता है। यह समय है कि हम एकजुट हों, अपने पूर्वजों को श्रद्धापूर्वक याद करें, और इस परंपरा को भावी पीढ़ियों तक पहुंचाएं।
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