"आत्म-महत्वबोध- की भ्रांति और सत्य"
अहंकार मनुष्य के चित्त की वह प्रवृत्ति है जो उसे वास्तविकता से विमुख कर देती है। यह एक ऐसा विकार है जिसमें व्यक्ति स्वयं को केंद्र में रखकर सोचता है एवं दूसरों के अस्तित्व, उनकी गरिमा तथा उनके योगदान को नगण्य मान लेता है। जब यह धारणा बन जाती है कि सम्मान एवं प्रशंसा केवल उसी का अधिकार है, तब भीतर का संतुलन नष्ट हो जाता है।
वास्तव में सम्मान एवं प्रशंसा किसी के अधिकार नहीं, बल्कि उसके आचरण, कर्म एवं विनम्रता की सहज परिणति हैं। जो व्यक्ति जितना अधिक विनीत होता है, उतना ही अधिक लोगों के हृदय में स्थान बना लेता है। अहंकार जहाँ अलगाव एवं कटुता उत्पन्न करता है, वहीं विनम्रता संबंधों में सौहार्द एवं सद्भाव को पुष्ट करती है।
इसलिए आवश्यक है कि हम आत्म-महत्व एवं आत्ममुग्धता के इस अंधकार से बाहर निकलें और अपने भीतर वह प्रकाश जगाएँ जो हमें दूसरों के प्रति संवेदनशील, आभारी एवं सहृदय बनाए। तभी जीवन में वास्तविक सम्मान एवं स्थायी प्रशंसा प्राप्त हो सकती है।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार) पंकज शर्मा
(कमल सनातनी)
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