लालू प्रसाद की विरासत और बिहार की राजनीति
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक श्री जितेन्द्र कुमार सिन्हा की खबर |
विरासत शब्द सुनते ही सामान्यतः सबसे पहले संपत्ति, जमीन-जायदाद, पारिवारिक परंपराएँ, संस्कृति, रीति-रिवाज, ज्ञान, और प्राकृतिक धरोहर जैसे आयाम सामने आता है। लेकिन राजनीति की दुनिया में विरासत का एक और ही अद्भुत रूप सामने आता है। यहाँ विरासत केवल घर-परिवार की वस्तुओं तक सीमित नहीं होता है, बल्कि पिता के भाव-भंगिमाओं, चाल-ढाल, बोलचाल और राजनीतिक शैली तक भी पहुँच जाती है। बिहार की राजनीति इसका ताजा उदाहरण है, जहाँ लालू प्रसाद की विरासत अब केवल उनकी राजनीतिक उपलब्धियों तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि उनके हाव-भाव, संवाद शैली और जनसंपर्क की कला तक फैल गई है। हाल ही में यह विरासत दो भाइयों, तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव, के बीच खैनी-चूना की तरह बंटते और छिटकते दिखाई दी।
लालू प्रसाद केवल एक नेता नहीं है, बल्कि अपने आप में एक राजनीतिक विश्वविद्यालय हैं। उनकी राजनीति ने बिहार को जातीय समीकरणों, सामाजिक न्याय और जनाधार की एक नई भाषा दी है। लालू प्रसाद की खास पहचान रही है कि वे किसी भी गंभीर मुद्दे को हल्की-फुल्की भाषा और व्यंग्य के माध्यम से जनता तक पहुँचाते थे। वे गाँव-गाँव जाकर लोगों से सीधे जुड़ते थे। उनकी शैली इतनी सहज थी कि आम आदमी उन्हें ‘अपनों में से एक’ मानता था। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करवा कर उन्होंने पिछड़ों और दलितों को राजनीति में नई ताकत दी। यही सब कारण हैं कि लालू प्रसाद की विरासत केवल पार्टी तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह एक भावनात्मक पूँजी बन गई।
राजनीतिक परिवारों में विरासत का हस्तांतरण नया नहीं है। नेहरू-गांधी परिवार से लेकर तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार तक, हर जगह यह देखा गया है। लेकिन लालू प्रसाद के परिवार की स्थिति थोड़ी अलग है। यहाँ विरासत केवल पार्टी के नेतृत्व का प्रश्न नहीं है, बल्कि लालू की शैली और छवि का भी उत्तराधिकारी कौन होगा, यह सवाल बड़ा हो गया है।
तेजस्वी यादव, लालू प्रसाद की राजनीति के वास्तविक उत्तराधिकारी माने जाते हैं। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में उनकी लोकप्रियता ने उन्हें विपक्ष का चेहरा बना दिया है। वे संगठित, व्यावहारिक और मुद्दा-आधारित राजनीति करने की ओर अग्रसर हैं।
तेजप्रताप यादव, लालू प्रसाद की भाव-भंगिमाओं और नाटकीय अंदाज़ को उन्होंने विरासत में लिया है। उनके बयानों और व्यवहार में ‘लालू स्टाइल’ झलकता है। लेकिन उनकी छवि गंभीर राजनीति के बजाय हल्के-फुल्के या कभी-कभी विवादास्पद बयानों से जुड़ जाती है। यही कारण है कि विरासत के असली वारिस को लेकर अंदरूनी खींचतान बार-बार चर्चा का विषय बनती है।
बिहार की धरती पर खैनी-चूना केवल एक आदत नहीं है, बल्कि सामाजिक प्रतीक भी है। लोग अक्सर कहते हैं “बात-बात पर खैनी लगाना बिहारियों का स्वभाव है।” हाल ही में जब दोनों भाइयों के बीच इशारों-इशारों में वर्चस्व की खींचतान दिखी, तो आम जनता ने इसे भी लालू प्रसाद की विरासत की लड़ाई के रूप में देखा। यह दृश्य प्रतीकात्मक था, जैसे खैनी बिना चूना अधूरी है, वैसे ही बिहार की राजनीति बिना लालू प्रसाद अधूरा माने जाते है। लेकिन जब चूना और खैनी का अनुपात बिगड़ता है, तो स्वाद कड़वा हो जाता है, जैसे भाइयों की आपसी तकरार से पार्टी की राजनीति असंतुलित हो रही है।
आज बिहार का विपक्ष मानता है कि लालू जी की विरासत के बिना आगे बढ़ना मुश्किल है। विपक्ष में कई चेहरे हैं, लेकिन जनता के दिलों में लालू प्रसाद जैसा प्रभाव किसी का नहीं है । तेजस्वी यादव लोकप्रिय हैं, लेकिन लालू प्रसाद जैसी सहजता और व्यंग्यात्मक शैली का अभाव है। मंडल राजनीति का फायदा विपक्ष अब भी उठाना चाहता है, लेकिन उसे जीवंत करने के लिए लालू प्रसाद जैसा नेता चाहिए। जब तक विपक्ष लालू प्रसाद की राजनीतिक पूँजी का सहारा नहीं लेगा, सत्ता की राह कठिन रहेगी।
लालू प्रसाद ने सामाजिक न्याय का नारा देकर पिछड़े और दलित समाज को राजनीतिक मुख्यधारा में लाया। यही उनकी सबसे बड़ी विरासत है। वे मीडिया से लेकर संसद तक में चुटकियों में अपनी बात कह जाते थे। जनता को यह शैली बहुत भाती थी। कभी रेलवे मंत्री के रूप में उनका कार्यकाल हो या विपक्ष के नेता के रूप में संघर्ष, उन्होंने हमेशा संकटों को अपने अंदाज़ से संभाला। लालू प्रसाद ने राजनीति में अपने परिवार को आगे बढ़ाया। अब यही परिवार उनकी राजनीतिक पूँजी और चुनौती दोनों बन गया है।
जनता अब केवल यह नहीं देख रही है कि विरासत किसे मिल रहा है, बल्कि यह भी देख रही है कि विरासत का उपयोग कैसे हो रहा है। यदि तेजस्वी मुद्दों पर केंद्रित रहते हैं, तो जनता उन्हें गंभीर नेता के रूप में स्वीकार करती है। यदि तेजप्रताप अपनी छवि को संयमित करें, तो वे भी लालू के हास्य-व्यंग्य की विरासत को आगे बढ़ा सकते हैं। लेकिन यदि दोनों में टकराव जारी रहा, तो जनता को लगेगा कि विरासत बिखर गई है।
विपक्ष को लालू की विरासत को साझा धरोहर मानकर आगे बढ़ना होगा। परिवार और पार्टी में यह स्पष्ट होना चाहिए कि नेतृत्व कौन करेगा। आज की पीढ़ी सोशल मीडिया और नए मुद्दों से जुड़ी है। लालू की शैली को आधुनिक रूप में ढालने की जरूरत है। अंततः वही नेता विरासत का असली वारिस होगा, जो जनता के मनोभावों को छू लेगा।
विरासत केवल पिता की भाव-भंगिमा की नकल करने से नहीं मिलती, बल्कि उस भावना को जीने से मिलती है, जो जनता के मन में बसी हो। लालू प्रसाद की विरासत जनता का विश्वास, सामाजिक न्याय की राजनीति और सहज संवाद शैली है। यदि विपक्ष और लालू प्रसाद के परिवार इस विरासत को सही तरह से संभाल ले, तो बिहार की राजनीति की दिशा बदल सकती है। वरना यह विरासत खैनी-चूना की तरह बिखर जाएगी, जहाँ स्वाद और शक्ति दोनों खो जाते हैं। -------------
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