‘अहिंसा परमो धर्मः’ — अधूरा श्लोक, अधूरा विमर्श
— डॉ. राकेश दत्त मिश्रभारतीय समाज में अक्सर यह सुनने को मिलता है कि हिंदुओं को कायर बनाने के लिए “अहिंसा परमो धर्मः” का प्रयोग किया गया। यह वाक्य वर्षों से एक नारे, एक उपदेश और कभी-कभी एक राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल होता रहा है। परंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि यह वाक्य अपने आप में अधूरा है, और अधूरा ज्ञान सदैव भ्रम और कायरता को जन्म देता है, न कि धर्म और साहस को।
अधूरा श्लोक, पूरा सत्य नहीं
जिस श्लोक का आधा हिस्सा बार-बार दोहराया जाता है, उसका पूर्ण रूप है—
“अहिंसा परमो धर्मः
धर्म हिंसा तथैव च।”
अर्थात—
अहिंसा परम धर्म है, किंतु धर्म की रक्षा के लिए की गई हिंसा भी धर्म ही है।
यह दूसरा चरण प्रायः जानबूझकर छिपा दिया गया। परिणाम यह हुआ कि अहिंसा को कमजोरी, डर और निष्क्रियता से जोड़ दिया गया, जबकि भारतीय दर्शन में अहिंसा कभी भी कायरों का आचरण नहीं रही।
अहिंसा: कायरता नहीं, आत्मबल
अहिंसा का वास्तविक अर्थ है—
अनावश्यक हिंसा से बचना,
द्वेष और प्रतिशोध से ऊपर उठना,
लेकिन अन्याय, अधर्म और आक्रमण के सामने चुप रहना नहीं।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता में स्पष्ट कहा—
यदि अन्याय के विरुद्ध शस्त्र न उठाया जाए, तो वह भी पाप है।
महाभारत का युद्ध इसी सिद्धांत पर लड़ा गया—धर्म की रक्षा के लिए।
इतिहास का साक्ष्य
यदि हिंदू कायर होते, तो—
राणा प्रताप हल्दीघाटी में जीवनभर संघर्ष न करते
छत्रपति शिवाजी महाराज अत्याचार के विरुद्ध स्वराज्य स्थापित न करते
गुरु गोबिंद सिंह जी “सवा लाख से एक लड़ाऊँ” का उद्घोष न करते
ये सभी भारतीय परंपरा के ही नायक हैं, जिन्होंने अहिंसा को आत्मबल और हिंसा को अंतिम विकल्प के रूप में स्वीकार किया।
कैसे बनाया गया “अहिंसा” को हथियार
औपनिवेशिक काल में और उसके बाद कुछ वैचारिक धाराओं ने “अहिंसा परमो धर्मः” को आधा-अधूरा प्रस्तुत कर यह धारणा बनाई कि हिंदू केवल सहन करना जानता है, प्रतिरोध नहीं।
इसका परिणाम यह हुआ कि—
समाज में अन्याय के विरुद्ध आवाज़ कमजोर पड़ी
अत्याचार को “भाग्य” कहकर स्वीकार किया गया
धर्मरक्षा को “कट्टरता” कहकर बदनाम किया गया
जबकि सच्चाई इसके ठीक उलट है।
धर्म की रक्षा भी धर्म है
पूर्ण श्लोक का दूसरा भाग—
“धर्म हिंसा तथैव च”
हमें यह सिखाता है कि—
जब संवाद असफल हो जाए
जब अन्याय सीमा पार कर जाए
जब अस्तित्व, संस्कृति और सम्मान पर आक्रमण हो
तो प्रतिरोध करना, आत्मरक्षा करना और धर्म की रक्षा करना भी पुण्य है, पाप नहीं।
आज की आवश्यकता
आज आवश्यकता है—
अधूरे श्लोक नहीं, पूर्ण शास्त्र समझने की
कायरता नहीं, विवेकपूर्ण साहस अपनाने की
मौन नहीं, सत्य और न्याय के लिए मुखर होने की
अहिंसा को ढाल बनाइए, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र भी उठाइए—यही सनातन परंपरा का संतुलन है।
निष्कर्ष
“अहिंसा परमो धर्मः” हिंदुओं को कायर बनाने का सूत्र नहीं है,
बल्कि यह उच्च नैतिक चेतना का प्रतीक है—
और उसका दूसरा चरण हमें याद दिलाता है कि
धर्म की रक्षा में किया गया संघर्ष भी धर्म ही है।
जब तक हम अधूरे श्लोकों से बाहर निकलकर पूर्ण सत्य को नहीं अपनाएंगे,
तब तक भ्रम बना रहेगा।
अब समय है—अहिंसा को समझने का, न कि उसे कमजोरी मानने का।
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