"नारी : सृष्टि का शाश्वत स्तम्भ"
झूले में आलोड़ित शिशुमानो भविष्य की अजन्मी सभ्यताओं का
सूक्ष्म बीज हो,
जो माता की करुणा की छाया में
अपने अस्तित्व का प्रथम स्वर गा रहा है।
माता—
गृहप्रांगण की साधारण प्रतीत होती स्त्री नहीं,
वह अनादि तपस्या की मूर्ति है।
उसकी दृष्टि में—
दुग्ध की श्वेत शांति,
अग्नि की ज्वाला,
और वटवृक्ष की शाश्वत स्थिरता
एक साथ आलोकित होती है।
उसका एक हाथ
भोजन के पात्र में गति करता है—
मानव शरीर को जीवन देने वाली
अनवरत साधना।
दूसरा हाथ
डोरी थामे हुए है—
मानव आत्मा को सुरक्षा देने वाली
अदृश्य प्रतिज्ञा।
अंगना की लोरी केवल स्वर नहीं,
वह ब्रह्म के नाद का लघुरूप है।
सूर्य की धूप और वृक्ष की छाया
जब उसके पदतल पर मिलते हैं,
तो वहाँ समय का चक्र थम जाता है।
धरती पर परिश्रम,
नभ में करुणा,
और इन दोनों के मध्य खड़ी नारी—
वह है सृष्टि का स्तम्भ,
जिस पर टिका है जीवन का सम्पूर्ण भवन।
उसकी आँखों में
युगों की वेदना है,
युगों की आशा है,
और युगों का संचित अनुभव है।
उसके त्याग से ही
धरा हरी है,
आकाश नील है,
नदियाँ प्रवहमान हैं।
ममता—
नारी का अदृश्य स्तुतिगान है,
जिसे देवता भी नहीं समझ पाते।
वह रसोई की धुएँ में प्रकट होती है,
वह झूले की डोरी में बँधी रहती है,
वह शिशु की हँसी में अमर हो जाती है।
नारी—
वह केवल मनुष्य नहीं,
वह आदिशक्ति है,
वह अनंत ब्रह्मांड की धुरी है,
वह सृष्टि का शाश्वत स्तम्भ है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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