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ढूॅंढ़ रहा हूॅं मैं वर्षों से ,

ढूॅंढ़ रहा हूॅं मैं वर्षों से ,

बताओ तुम कहाॅं हो !
पहुॅंच पा रहा वहाॅं मैं ,
माॅं उपस्थित जहाॅं हो !!
यहाॅं ढूॅंढ़ा वहाॅं मैं ढूॅंढ़ा ,
जहाॅं तहाॅं कहाॅं न ढूॅंढ़ा ।
ढूॅंढ़ चुका जगत सारा ,
कहे कोई पागल मूढ़ा ।।
ढूॅंढ़ने चला बुजुर्गों में ,
बुजुर्ग महिला ऑंखों में ।
उर में भी झाॅंक देखा ,
मिली न उन साखों में ।।
मातृ चेहरे को मैं झाॅंका ,
मिली ही वहाॅं तुम नहीं ।
ढूॅंढ़ते ढूॅंढ़ते जब थका ,
दिल कहा हो गुम कहीं ।।
मातृशक्ति मिलीं बहुत ,
ममतामई माॅं कैसे लाऊॅं ।
जिस ऑंचल छाया था ,
वह छाया मैं कहाॅं पाऊॅं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण ) बिहार ।
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