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मेरी कल्पित अभिलाषा का,

मेरी कल्पित अभिलाषा का,

तुम्हीं हो स्वर्णिम विन्यास|
रग रग मृदुलता स्पंदन,
अंतःकरण माधुर्य सराबोर ।
पुलकित भाव तरंगिनी ,
तृषा तृप्ति आनंद भोर ।
हाव भाव मस्त मलंग,
अंतःकरण अनंत उजास ।
मेरी कल्पित अभिलाषा का, 
तुम्हीं हो स्वर्णिम विन्यास ।।

प्रति पल दर्शन अभिलाष,
स्मृति पटल मनोरम छवि ।
रूप श्रृंगार अति मनहर,
आकर्षण अनुपमा नवि ।
यौवन उभार प्रणय जन्य,
नयनन स्नेहिल उल्लास।
मेरी कल्पित अभिलाषा का, 
तुम्हीं हो स्वर्णिम विन्यास  ।।

परिध क्षेत्र आशा उमंग,
स्वप्न माला जीवंत रूप ।
चाल ढाल मोहक सोहक,
सौंदर्य बिंदु अर्णव प्रतिरूप ।
हिय प्रिय मौन अभिव्यक्ति,
प्रीति जन्य मुस्कान खास ।
मेरी कल्पित अभिलाषा का,
तुम्हीं हो स्वर्णिम विन्यास  ।।

ह्रदय सरोवर नेह तरंग,
अनुभूति पुनीत पावन ।
स्वर सुरभि दिव्य झंकार,
उर चंचल चंद्रिका बिछावन । 
निशि दिन रमणीक प्रभा,
अष्ट प्रहर प्रिय मिलन आस ।
मेरी कल्पित अभिलाषा का,
तुम्हीं हो स्वर्णिम विन्यास।।

कुमार महेन्द्र
(स्वरचित मौलिक रचना)
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