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मन नहीं रमता कहीं अब भीड़ के आक्रोश में

मन नहीं रमता कहीं अब भीड़ के आक्रोश में

डा रामकृष्ण
मन नहीं रमता कहीं अब भीड़ के आक्रोश में
पत्थरो से शब्द फेंके जा रहे आकाश में ं।


अस्थि मांसल देह में ंलघुतम मृदुलता ही सही
अल्प त्याग सहिष्णुता परिपूर्ण मानवता सही।
डंक मारण की प्रवृति बिच्छु से कितना उचित
इसलिए रोड़े बिछाए जा रहे विश्वास में।।


राजनीतिक हाट में नारे बहुत सस्ते हुए
शैक्षणिक दूकान के भारी बहुत बस्ते हुए।
हर गली आश्वासनों के नाम के परम सटे
कबूतर हैं जा रहे छोड़े तनिक आभास में।।


मनाही है खोलना अब ओठ ओछी बात पर
जिंदगी गिरवी रखी जा रही है प्रतिघात पर।
जब कभी प्रतिबंध के विपरीत ऊँचा बोलिए
जोडिए आक्रोश का संगीत अपनी साँस में ।।
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