संस्कार से सत्ता तक: ब्राह्मण समाज, धर्म-त्याग और राजनीति का बदलता स्वरूप
लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र1. बदलते समय की चुनौती
बिहार की भूमि भारत की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यह वह धरती है जहाँ से न केवल राजनीति, बल्कि धर्म, दर्शन और ज्ञान के ऐसे स्रोत प्रवाहित हुए, जिन्होंने सदियों तक पूरी सभ्यता को पोषित किया। वैशाली का गणराज्य, मगध का साम्राज्य, नालंदा-विक्रमशिला का ज्ञान-प्रवाह, मिथिला की तर्क-परंपरा — ये सभी इस भूमि की पहचान हैं।
इतिहास में बिहार केवल सत्ता की राजनीति के लिए नहीं, बल्कि आदर्शवादी नेतृत्व के लिए भी जाना गया। चाणक्य ने सत्ता को साधन माना, लक्ष्य नहीं। विद्यापति ने राजा को धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसान और समाज को एकजुट करने का कार्य किया। इन सबके पीछे जो तत्व था, वह था — धर्म और संस्कार का अटूट बंधन।
लेकिन आधुनिक बिहार की राजनीति में एक नया परिदृश्य बन रहा है। आज हम देखते हैं कि कई शिक्षित, संस्कारित, और उच्च कुल में जन्मे नेता, राजनीतिक लाभ के लिए अपनी धार्मिक और जातीय पहचान को दरकिनार कर देते हैं। हाल ही में, एक ऐसे ही ब्राह्मण नेता का उदाहरण सामने आया — जो जैसे ही सत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ना शुरू हुआ, उसने अपने ही धर्म के मुद्दों पर चुप्पी साध ली, बल्कि मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए उनके धार्मिक-सामाजिक एजेंडे का समर्थन करने लगा।
यह सवाल केवल उस व्यक्ति का नहीं है — यह एक प्रवृत्ति का संकेत है। यह दर्शाता है कि ब्राह्मण समाज में आज कितने लोग ऐसे हैं जो शिक्षित, महत्वाकांक्षी तो हैं, लेकिन धर्म-भाव और जातीय चेतना से विहीन हैं। ये लोग अवसर मिलने पर किसी भी हद तक जा सकते हैं — चाहे वह अपने धर्म के साथ समझौता करना ही क्यों न हो।
महर्षि वेद व्यास ने कहा था —
"धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः।"
(जो धर्म का नाश करता है, धर्म भी अंततः उसका नाश कर देता है। धर्म की रक्षा करने से धर्म हमारी रक्षा करता है।)
आज यह वचन केवल स्मरण के लिए नहीं, बल्कि चेतावनी के रूप में हमारे सामने खड़ा है।
2. ब्राह्मण: परिभाषा, कर्तव्य और धर्मशास्त्रीय आधार
2.1 ‘ब्राह्मण’ शब्द की व्युत्पत्ति
संस्कृत में "ब्राह्मण" शब्द की व्याख्या केवल जन्म-आधारित नहीं, बल्कि गुण और कर्म आधारित है।
· ब्रह्म = सर्वोच्च सत्य, सृष्टि का मूल सिद्धांत
· ण = धारक, जानने वाला
इस प्रकार ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को जानता और अपने जीवन में उसका पालन करता है।
2.2 धर्मशास्त्रीय परिभाषाएँ
मनुस्मृति (1/88):
“अध्यापनं अध्यायनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकालनम्॥”
अर्थ — ब्राह्मण का कर्तव्य है वेद पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना, दान देना और लेना।
महाभारत (शांति पर्व, 109/10):
“तपो बलं ब्राह्मणस्य, ज्ञानं तस्य परं धनम्।
धर्मेण जायते लोकः, धर्मेणैव वियुज्यते॥”
अर्थ — तप ही ब्राह्मण का बल है, ज्ञान उसका धन है। संसार धर्म से उत्पन्न होता है और धर्म से ही नष्ट होता है।
2.3 ब्राह्मण का ऐतिहासिक कर्तव्य
· आध्यात्मिक मार्गदर्शन — समाज को धर्म, नैतिकता और न्याय का मार्ग दिखाना।
· शिक्षा का प्रसार — गुरुकुल प्रणाली में ज्ञान देना।
· राजनीतिक परामर्श — राजा को धर्मसम्मत निर्णय लेने में सहायता।
2.4 आज का विचलन
आज कई ब्राह्मण, जो इन आदर्शों के वाहक माने जाते थे, राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए अपने कर्तव्यों को त्याग चुके हैं। यही कारण है कि समाज में उनके प्रति सम्मान का भाव घटा है।
3. बिहार में ब्राह्मण की राजनीतिक यात्रा
3.1 प्राचीन काल
· चाणक्य — नंद वंश का अंत कर चंद्रगुप्त मौर्य को सिंहासन पर बैठाया। सत्ता स्वयं लेने के बजाय योग्य शासक को स्थापित करना चुना। यह दिखाता है कि प्राचीन ब्राह्मण सत्ता को लक्ष्य नहीं, साधन मानते थे।
· विद्यापति — मिथिला के राजाओं के मंत्री और साहित्यकार, जिन्होंने भक्ति और नीति का अद्भुत समन्वय किया।
3.2 मध्यकालीन दौर
· तुर्क, अफगान और मुगल आक्रमणों के समय ब्राह्मण समाज पर भारी दबाव पड़ा।
· कई ब्राह्मणों को दरबार में नौकरशाही या विद्वता के बल पर स्थान मिला, परंतु धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व सीमित हुआ।
3.3 औपनिवेशिक काल
· डॉ. राजेंद्र प्रसाद — बिहार के बलिया (वर्तमान झारखंड के निकट क्षेत्र) से शिक्षा प्राप्त कर भारत के पहले राष्ट्रपति बने।
· स्वामी सहजानंद सरस्वती — किसान आंदोलन के अग्रणी नेता, जिन्होंने अंग्रेजी सत्ता और जमींदारी प्रथा दोनों को चुनौती दी।
3.4 स्वतंत्रता-उपरांत राजनीति
· 1950-80 के बीच ब्राह्मण कांग्रेस में प्रभावी थे। मुख्यमंत्री पद तक पहुँचे नेता (जैसे डॉ. श्रीकृष्ण सिंह) ने विकास को प्राथमिकता दी, लेकिन जातिगत ध्रुवीकरण न्यूनतम था।
· 1990 के बाद मंडल आयोग के प्रभाव से राजनीति में पिछड़ी जातियों और मुस्लिम-यादव समीकरण का दबदबा बढ़ा, और ब्राह्मण हाशिये पर चले गए।
4. धर्म-त्याग के कारण
ब्राह्मण समाज में धर्म-त्याग का प्रश्न केवल एक नैतिक विचलन नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक-राजनीतिक प्रवृत्ति का परिणाम है।
इसके पीछे कई कारण हैं:
4.1 राजनीतिक महत्वाकांक्षा
राजनीति में आज ‘वोट बैंक’ की गणित सबसे निर्णायक है।
मुस्लिम मतदाता बिहार में लगभग 17% हैं, और कई विधानसभा क्षेत्रों में वे निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
ब्राह्मण नेता, जो खुद जातीय संख्या में सीमित हैं (लगभग 5%), अक्सर सोचते हैं कि अल्पसंख्यक मतदाताओं को साधकर वे सत्ता में आ सकते हैं।
परिणामस्वरूप, वे हिंदू मुद्दों पर चुप्पी साध लेते हैं या विपरीत रुख अपनाते हैं।
हाल ही में एक ब्राह्मण विधायक ने अपने चुनावी क्षेत्र में दुर्गा विसर्जन के मार्ग पर लगे प्रतिबंध का विरोध करने की बजाय, मुस्लिम संगठनों के साथ फोटो खिंचवाई, ताकि ‘समन्वय’ का संदेश जाए।
4.2 आर्थिक लोभ
राजनीति केवल सत्ता नहीं, ठेका, आयोग, अनुदान और व्यापारिक अवसर भी देती है।
धर्म और जाति का त्याग करके यदि कोई ‘अनुकूल माहौल’ पा सकता है, तो कुछ लोग उसे चुन लेते हैं।
महाभारत (शांति पर्व) चेतावनी देता है:
"लोभः पापस्य कारणम्।"
(लोभ पाप का कारण है।)
4.3 भय और दबाव
राजनीतिक प्रतिशोध, दंगों का डर, या किसी शक्तिशाली नेता का प्रभाव — ये सब ब्राह्मण नेताओं को अपने रुख में बदलाव के लिए मजबूर कर सकते हैं।
कुछ क्षेत्रों में प्रशासनिक दबाव के कारण भी नेता खुलकर बोलने से बचते हैं।
4.4 व्यक्तिगत पहचान की लचीली सोच
आधुनिक शिक्षा और पश्चिमी प्रभाव के चलते कुछ लोग धर्म को केवल ‘व्यक्तिगत मामला’ मानते हैं और राजनीति में उसे अप्रासंगिक समझते हैं।
लेकिन भारत जैसे देश में, जहाँ राजनीति और संस्कृति गहरे जुड़े हैं, यह सोच न केवल अवास्तविक है बल्कि खतरनाक भी है।
4.5 अल्पकालिक लाभ का मोह
मनुस्मृति (8/15) कहती है:
"अल्पमप्यर्थसङ्ग्रहेण धर्मं न हानयेत्।"
(थोड़े से लाभ के लिए भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए।)
दुर्भाग्य से, आज के कई नेता थोड़े वोट, एक टिकट, या मंत्री पद के लिए अपनी मूल पहचान तक छोड़ देते हैं।
5. बिहार के समकालीन राजनीतिक उदाहरण
यहाँ कुछ हालिया घटनाएँ, जो इस प्रवृत्ति को स्पष्ट करती हैं (नामों का उल्लेख न करके प्रवृत्ति पर ध्यान केंद्रित):
त्योहारों में दोहरा रुख —
दशहरा, रामनवमी या छठ के अवसर पर कई नेता चुप रहते हैं या सोशल मीडिया पर पोस्ट नहीं करते, लेकिन ईद और बकरीद पर बड़े आयोजन करते हैं।
संदेश स्पष्ट है — मुस्लिम मतदाताओं को खुश करना, भले ही अपने पारंपरिक समर्थक असंतुष्ट हों।
विवादास्पद वक्तव्य —
एक ब्राह्मण सांसद ने बयान दिया कि "हिंदुत्व की राजनीति देश को नुकसान पहुँचा रही है", लेकिन उसी भाषण में मदरसा शिक्षा को सरकारी अनुदान बढ़ाने की वकालत की।
वोट बैंक गठबंधन —
कई ब्राह्मण नेता मुस्लिम बहुल पार्टियों में शामिल हो जाते हैं, जहाँ हिंदू मुद्दों पर खुली चर्चा नहीं होती।
ऐतिहासिक तुलना:
1950-70 के बीच ब्राह्मण नेता, जैसे डॉ. श्रीकृष्ण सिंह या ललित नारायण मिश्रा, सभी धर्मों के सम्मान के साथ हिंदू परंपराओं का पालन करते थे।
आज, वही संतुलन टूट गया है, और ‘एक तरफा appeasement’ की प्रवृत्ति बढ़ी है।
6. शास्त्रीय चेतावनी और ऐतिहासिक संदर्भ
महाभारत (वनपर्व, 313/117):
"धर्मो हि तेषां बलवान्, न वित्तं न च बान्धवाः।"
(ब्राह्मण का बल धर्म है, न धन, न रिश्तेदार।)
रामायण (अयोध्या कांड) —
जब भरत को अयोध्या का राज्य मिला, उन्होंने कहा —
"राज्यं पितुर्वचनतः त्यजामि धर्मान्महत्।"
(पिता के वचन और धर्म के कारण मैं यह राज्य छोड़ता हूँ।)
संदेश: सत्ता धर्म के बाद है, पहले नहीं।
7. परिणाम और प्रभाव
- व्यक्तिगत स्तर — आत्मग्लानि, मानसिक अस्थिरता, और सामाजिक अविश्वास।
- समाज स्तर — ब्राह्मणों की नेतृत्व क्षमता पर प्रश्नचिन्ह।
- राजनीतिक स्तर — स्थायी आधार खोकर अस्थायी सफलता, और फिर पतन।
- आध्यात्मिक स्तर — पाप और पुण्य का असंतुलन, आत्मा में असंतोष।
8. समाधान के मार्ग
- धार्मिक शिक्षा का पुनर्जीवन —
- घर में वेद, गीता, रामायण का पाठ।
- युवाओं के लिए सांस्कृतिक कार्यशालाएँ।
- राजनीतिक प्रशिक्षण में मूल्य शिक्षा —
- राजनीति में आने वाले युवाओं को धर्म-आधारित नैतिकता सिखाना।
- सांस्कृतिक पुनर्जागरण —
- मिथिला पेंटिंग, लोकगीत, पर्व-त्योहारों का व्यापक प्रचार।
- संगठन और एकता —
- ब्राह्मण समाज के बीच विचार-विनिमय मंच, ताकि मुद्दों पर सामूहिक रुख तय हो।
9. ब्राह्मण समाज के लिए चेतावनी और संदेश
यह समय आत्मनिरीक्षण का है।
शिक्षा, संस्कार और धर्म — तीनों को साथ लेकर चलना ही अस्तित्व की गारंटी है।
जो धर्म छोड़ता है, वह केवल अपनी जाति ही नहीं, बल्कि पूरे समाज को कमजोर करता है।
10. निष्कर्ष
बिहार के बदलते राजनीतिक परिदृश्य में ब्राह्मण समाज की स्थिति केवल संख्या के हिसाब से कमजोर नहीं हुई है, बल्कि मानसिक रूप से भी चुनौतीपूर्ण हो गई है।
महर्षि वेद व्यास, चाणक्य और विद्यापति के आदर्श आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, लेकिन उन्हें जीवन में उतारने का साहस घटा है।
"धर्मो रक्षति रक्षितः" — यह केवल ग्रंथ का श्लोक नहीं, बल्कि अस्तित्व का सूत्र है।
जो इसे भूलेगा, वह न सत्ता में टिकेगा, न समाज में सम्मान पाएगा।
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