"स्वीकृति से साधना तक"
( द्रुतविलंबित छंद )रचना:-- डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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अंधकार में रह के भी ज्ञान का, अहंकार मन में उठता है।
जो अज्ञ हुआ, वो ज्ञानी बना, यह भ्रम मार्ग से हटता है।
जब तक न हो यह बोध मनोमय, तब तक सत्य न दिखता है।
स्वीकृति से ही जागृति फूटे, तब प्रकाश में चित्त बहता है॥
जो देख सके निज दोषों को, वह ही साधक कहलाता है।
अपने अंतर के तम से जो, निडर हो युद्ध लड़ जाता है।
जो स्वीकार करे दुर्बलता, वही सत्य से जुड़ पाता है।
उसके भीतर दीप जले तब, हर दिशा सुमंगल गाता है॥
अज्ञान के मोहजालों से, जो खुद को मुक्त बनाता है।
वह विवेक की सीढ़ी चढ़कर, आत्मज्योति जगाता है।
साहस चाहिए स्वीकृति हेतु, जो तम का नाम बताता है।
साधक वही, जो स्वप्रकाश में, निज पथ को आलोकित पाता है॥
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