मेरी मौलिक रचना
सोच सोच कर मनव्याकुल कितना हो गया।
भेजा जिसने मुझको
क्या वो ही पालेगा।
प्रश्न बहुत जटिल है
पर हल करना होगा।
इसलिए आस्था हमें
उस पर रखना होगा।।
बैठ दुनियां के मंच पर
देख रहा दुनियां को।
क्या क्या तेरे सामने
आज कल हो रहा है।
फिर भी मन तेरा
नहीं पिघल रहा है।
और खुदको तू मानव
कैसे कह रहा।।
बदलो खुदको तुम तो
दुनियां भी बदलेगी।
जो कुछ तुम कहते हो
खुदको करना होगा।
देखेगा जो तुम को
वो भी निश्चित बदलेगा।
देखते ही देखते हमारा
ये समाज बदलेगा।।
परिभाषा मानव की
क्या कोई समझायेगा।
मानव का मानव से
रिश्ता जोड़ पायेगा।
या खुद ही इस प्रश्न का
उत्तर बन जायेगा।
तब जाकर शायद तू
मानव परिभाषा बता पायेगा।।
जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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