कोईली कागा
कोईली बोले कू कू कू ,काउआ बोले काॅंव रे ।
कोयल सुनाए मीठ राग ,
कउआ खोजे दाॅंव रे ।।
कोईली के कउआ भगावे ,
कोईली गुण ना पावेला ।
कोईली के अवगुण वास्ते ,
कोईली के काग ठुकरावेला ।।
कउआ जईसे नगर से आईल ,
आके बोले गाॅंव रे ।
गाॅंव के बाग बगीचा देख ,
बईठे डाढ़ पे छाॅंव रे ।।
कागा के कोईली ना भावे ,
आदमी काग ना भावेला ।
कोईली के भगाके कागा ,
कर्कश राग सुनावेला ।।
काग के घर में अंडा देवे ,
मादा कव्वी के छाॅंव रे ।
अंडा से जब बच्चा होखे ,
उड़ भागे अगला ठाॅंव रे ।।
कागा सच संदेशा देवे ,
धरती के गंदगी मेटावेला ।
करिया करिया दूनू करिया ,
आपन भूमिका निभावेला ।।
दूनों के भीतर जमल बाटे ,
उजर हंस के पाॅंव रे ।
कागा राग लागे अईसन ,
जईसे बंदर बोल खाॅंव रे ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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